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के चार शिक्षाव्रतों में से एक के रूप में लिया गया है। व्रत प्रतिमा में प्रोषधोपवास सातिचार होता है और प्रोषधोपवास प्रतिमा में निरतिचार यदि सामान्य गृहस्थ प्रोषधोपवास न कर सकता हो तो वह अपनी शक्ति के अनुसार उपवास, एकासन या उनोदर आदि भी कर सकता है।
उपवास में प्रातः काल एवं सायंकाल में सामायिक, रात्रि में कायोत्सर्ग और दिन में स्वाध्याय करना चाहिए, हिंसादि आरम्भ से बचना चाहिए और ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, दिनभर धर्म ध्यान में ही अपने को लगाये रखना चाहिए। जैन धर्म में व्रत और उपवास की व्याख्या करते हुये कहा गया है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होना व्रत है या प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है उसे व्रत कहते हैं और विषय कषायों को छोड़कर आत्मा में लीन रहना या आत्मा के निकट रहना उपवास है। अतः विषय कषाय और आरम्भ का संकल्पपूर्वक त्याग करना उपवास है, मात्र भोजन का त्याग करना और दिनभर विषय कषाय और आरम्भ आदि में प्रवर्त रहना तो मात्र लंघन है, उपवास
नहीं ।
जैन धर्म में कहा गया है कि व्रत उपवास अनेक पुण्य का कारण है स्वर्ग का कारण है, संसार के समस्त पापों का नाश करने वाला है जो व्यक्ति सर्वसुख उत्पादक श्रेष्ठ व्रत धारण करते हैं, वे सोलहवें स्वर्ग के सुखों को अनुभव कर अनुक्रम से अविनाशी मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। "
वैज्ञानिक अनुचिंतन
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इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में व्रत और उपवास का बहुत महत्व बताया गया है लेकिन व्रत उपवास में भोजन के त्याग के साथ साथ हिंसादि आरम्भ का त्याग, सामायिक, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय और धर्म ध्यान को भी महत्वपूर्ण माना गया है। अनेक चिन्तकों ने व्रत उपवास के महत्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का प्रयत्न किया गया है। कुछ इन्हें ध्यान और योग के लिए आवश्यक बताते हैं तो कुछ स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं कुछ ने इनका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अध्ययन किया है। हम इनकी चर्चा क्रमश: आगे प्रस्तुत कर रहे हैं।
योग दर्शन और व्रत उपवास
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ध्यान और योग का प्रचलन कुछ समय से अधिक हो गया है लेकिन इसका उपयोग बहुत सीमित कर रखा है। वस्तुत: योग एक प्राचीन साधना पद्धति है। पातंजलि ने योग की विस्तृत व्याख्या की है योग साधना के आठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यम का अर्थ है निग्रह अर्थात् छोड़ना । पातंजलि ने यम को योग की आधारशिला माना है। तथा परिग्रह का त्याग। जीवन की वे प्रवृत्तियाँ जो यम के पालन में सहायक हैं, नियम कहलाती हैं। ये ( अर्थात् मन, वचन व काय की शुद्धता), संतोष, तप ( बाहय एवं अंतरंग), स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ( अर्थात् मन, वचन व काय की ये प्रवृत्तियाँ जिससे आत्मा परमात्मा बन जाय।)
यम पाँच हैं -हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन योग के लिए अनिवार्य हैं तथा जो नियम भी मुख्यतः पाँच हैं
शौच
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आसन शरीर की वह स्थिति है जिससे शरीर बिना किसी बेचैनी के स्थिर रह सके और मन को सुख की प्राप्ति हो। प्राणायाम श्वास को नियन्त्रित रखने की प्रक्रिया
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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