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पुस्तक समीक्षा अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) महाश्रमण महावीर : एक कालजयी दस्तावेज
- सूरजमल बोबरा*
मूल्य
नाम
: महाश्रमण महावीर । महाश्रमणमहातीर (लेखक
: पं. सुमेरूवन्द्रजी दिवाकर प्रकाशक
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, भगवान महावीर 2600 वाँ जन्म कल्याणक महोत्सव प्रचार समिति, हस्तिनापुर (मेरठ),
एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ प्रकाशन वर्ष/संस्करण : 2003, द्वितीय पृष्ठ संख्या : 338 (आमुख पृष्ठों के अतिरिक्त)
: रु. 250.00 समीक्षक
: सूरजमल बोबरा, निदेशक - ज्ञानोदय फाउन्डेशन,
.0/2, स्नेहलतागंज, इन्दौर-452003 महावीर को समझने के लिए पं. सुमेरूचंद्रजी दिवाकर ने दो मुंहवाली दूरबीन का उपयोग किया है। उसका एक मुंह केन्द्रित है महावीर रूप में अवतरित होने के पूर्व महावीर की आत्मा पर और दूसरा मुंह उस आत्मा के आसाढ़ वदी 6 को महावीर रूप में जन्म लेने के लिए गर्भ में आने से लेकर उनके कार्तिक वदी 30 को मोक्षगामी होने तक केन्द्रित है। महावीर की आत्मा के पूर्व के रूप में सात परम स्थानों की यात्रा को बहुत ही सारगर्भित रूप में पृष्ठ 103 पर संजोया गया है। उन्होंने लिखा है। 'हम देखते हैं कि पुरूरवा भील के जीव ने जब से सच्चे धर्म की शरण ग्रहण किया है, तब से वह जीव उच्च कोटि के निरंतर वर्धमान सुखों को भोगता हुआ आंतरिक एवम् बाह्य उन्नति करता जा रहा है।'
इन सात परम स्थानों को महापुराण में स्पष्ट किया गया है कि 'सज्जातित्व, सदगृहिपना, पखिाज्य मुनीन्द्रपना, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, परम आर्हत्य और परम निर्वाण ये परम स्थान हैं।' (67 पर्व 38)
'अच्युत तथा अमर पद तो उसी समय प्राप्त होता है, जब वह चैतन्य मूर्ति आत्मा समस्त विभाव तथा विकार का परित्याग कर स्वाभाविक सिद्ध पर्याय को प्राप्त करता है, और जब वह अध्यात्म शास्त्र की भाषा में कार्य परमात्मा' बन जाता है।'
महावीर की आत्मा के पूर्व जन्मों का वृतांत केवल गल्प नहीं वरन श्रमण दर्शन के इस मूल तत्व पर आधारित है कि आत्मा कर्मों से बंधी है और जब तक कर्मों की पूर्ण निर्जरा न हो जाय मुक्ति संभव नहीं है। सात परम स्थानों की यात्रा वे पद चिन्ह हैं जो परम शांति का मार्ग बता रहे हैं। जो इन पूर्व भवों को काल्पनिक बताते हैं वे इन्हें दिवाकर जी की दूरबीन से देखें। जिस सरल सहज ढंग से दिवाकरजी ने इन वृतांतों को लिखा है कभी-कभी ऐसा लगता है मानो कोई सीरियल देख रहे हों। भील, पथ भ्रमित राजकुमार, देवत्व, अर्धचक्री का प्रभुत्व, मृगेन्द्र, सुरराज, नरेश, दिव्यात्मा, राजा, चक्रवर्ती, न्यायशील नंद, अच्युतेन्द्र सब में वही आत्मा भ्रमण कर रही है जो परम शांति के लिए समर्पित है। यह वह यात्रा वृतान्त हैं जो महावीर की आत्मा को वर्धमान बना रहे हैं।
दिवाकर जी की यह दूरबीन बड़ी शक्तिशाली है जो परिस्थितियों का माइक्रो विश्लेषण करती है किन्तु कभी भी श्रमण परंपरा से भटकती नहीं है। पृष्ठ 18 पर निर्ग्रन्थ परंपरा पर उनकी यह टिप्पणी कि 'निर्ग्रन्थ' श्रमण, व्रतदान तथा पवित्र उपदेश द्वारा जीवों का जितना सच्चा कल्याण करते हैं, उसका सहस्त्रांश भी बड़े-बड़े विद्या केन्द्रों आदि के द्वारा सम्पन्न नहीं होता।'
वर्तमान काल के भटके हुए शोधकार्यों पर दिवाकरजी की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन परंपरा के संदर्भो से भटके कोई भी शोध इतिहास के प्रतिकूल है। यह सदैव स्मरण रखना आवश्यक है अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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