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समारोह में जहाँ मुख्य अतिथि ने ज्ञानपीठ के श्रेष्ठ कार्यों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की वहीं पुरस्कृत विद्वानों ने पुरस्कार प्राप्ति के उपरान्त जैन इतिहास के क्षेत्र में और अधिक समर्पित भाव से कार्य करने का संकल्प व्यक्त किया ।
'स्तूपों की जैन परम्परा और स्थापत्य'
'स्तूप' भारतीय भवन निर्माण की प्राचीनतम विधा कही जा सकती है। जैन पुराणों में 'घंटाकार' रूप में ऋषभदेव की स्मृति को रूपाकार में भरत द्वारा बदलते दर्शाया गया है। संभवत: कैलाश पर्वत का आकार इसका मूल प्रेरणा केन्द्र रहा हो। कालान्तर में भवन शिल्प का यह प्रकार किस रूप में मुनष्य की स्मृति में रहा इसे क्रमबद्ध करना कठिन है किन्तु गोलाकार पूजास्थलों के वर्णन जैन व अजैन संदर्भों में बहुतायत से मिलते हैं। तीर्थंकरों के सभास्थलों (समवशरण) में स्तूपों का अस्तित्व था । इतिहास के संकेत हैं कि सर्वप्रथम जैन, फिर वैदिक और फिर बौद्धावलम्बियों ने इसे ( स्तूप निर्माण को) अपनाया। समय के प्रवाह में इस क्रम में उलटफेर हो गया और जैन स्तूपों पर व्यवस्थित सामग्री जैन संघ के पास नहीं रही। अब समय बदला है और 'जैन गौरव' को स्थापित करने का प्रयास सब तरफ बढ़ा है।
स्तूपों की जैन परम्परा
और स्थापत्य
डॉ. अभयप्रकाश जैन
-- प्रकाशक
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर ज्ञानोदय फाउन्डेशन, इन्दौर
इतिहास के शोधार्थी डॉ. अभयप्रकाश जैन ने स्तूपों की जैन परंपरा पर गहराई से विचार किया है और कई तथ्य उद्घाटित किए हैं। उन्होंने 'गंधकुटी' को भी इस विचार के साथ जोड़ने का सुझाव दिया है। प्राचीन पौराणिक संदर्भों से चलकर मथुरा के जैन सुपार्श्वनाथ स्तूप के पार्श्वनाथ काल में भी अस्तित्व में होने का संदर्भ दिया है। देशभर में यत्र-तत्र फैले जैन स्तूपों का भी आपने तुलनात्मक अध्ययन किया है। कई संकेत ऐसे भी हैं जिसमें कई स्तूप अशोक द्वारा निर्मित कहे गये हैं किन्तु प्रमाण है कि वह स्तूप इससे भी पहले जैन परंपरा में निर्मित स्तूप के रूप में वहाँ मौजूद थे। डॉ. अभयप्रकाश जैन का यह शोध प्रबंध जैन इतिहास को उसके प्राचीनतम समय से जोड़ने में सहायक होगा।
स्तूपों पर किया गया यह शोध कार्य इस बात का भी मूल्यांकन करेगा कि वास्तव में अशोक मूलतः जैन था । वह परिवार हंता नहीं सहृदय पुरुषार्थी था। पालीग्रंथों के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनों को प्रमाणों से कसा जाना संभव हो सकेगा। पुरानी कुछ किंवदंतियाँ हैं कि मूर्तियों और शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए स्तूप बनाए जाते थे। हो सकता है किसी दिन इसका प्रमाण मिल जाए तो जैन इतिहास अधिक पारदर्शी हो जाएगा। 'धर्मचक्र' और 'स्तूप' का संबंध भी दृष्टिंगत होता है किन्तु इस हेतु भी हमें स्तूपों के निकट तो जाना ही पड़ेगा। इसी भावना के साथ डॉ. अभयप्रकाश जैन के आलेख 'स्तूपों की जैन परंपरा एवम् स्थापत्य' को ज्ञानोदय पुरस्कार 2000 हेतु चयनित किया गया है। संपर्क : डॉ. अभयप्रकाश जैन, एन- 14, चेतकपुरी, ग्वालियर - 474009
'श्री खारवेल'
( भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय)
श्री सदानंद अग्रवाल, मेन्डा ( बालनगिर) ने गहन अध्ययन, इतिहास की पारदर्शीदृष्टि,
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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