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________________ मंजरी की प्रस्तावना में इसे 'सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद' कहा है। अतः स्पष्ट है कि इस शारदा भवन / वाग्देवी कुल सदन / सरस्वती कण्ठाभरण प्रासाद की अधिष्ठात्री देवी - वाग्देवी या सरस्वती थी। यह वाग्देवी कुल सदन भोज की धारा नगरी का मुकुट था। वीर, विद्वान, धर्मपरायण भोज, उपर वर्णित विद्वानों का समूह, ज्ञान को समर्पित शारदा सदन व भोजसागर के निकट बसे धार्मिक स्थान यह चतुष्कोण प्रतिस्पर्धी राजाओं के मन में ईर्ष्या पैदा करते रहते थे। उनके मन में ऐसी ज्ञानोन्मुख नगरी बसाने की लालसा होती थी । भोज और धारा न केवल मालवा बल्कि समस्त भारत में आख्यानों का आधार बन गए थे। एक संदर्भ स्मरण के अनुकूल है कि भोज के राज्याशासन के अंतिम वर्षों में कलचुरि वंशी कर्ण और गुजरात के चालुक्य वंशी नरेश भीम ने संयुक्त रूप से परमार राज्य पर हमले किए। भोज बीमार पड़ गया और उसका देहावसान हो गया। धार नगरी असहाय हो गई। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण नहीं कि किसी भारतीय राजा ने आक्रमण के दौरान किसी सांस्कृतिक स्थान को नष्ट किया हो। धारा की सांस्कृतिक श्रेष्ठता को देखकर चालुक्य आक्रमणकर्त्ता अभिभूत हो गए थे। चौलुक्य नरेश जयसिंह ने (भीम के पौत्र और गुजरात राज्य के उत्तराधिकारी) (1094 से 1143 ई.) राजा भोज परमार की धारा नगरी की भांति अन्हिलपाटन को ज्ञान और कला का अनुपम केन्द्र बनाने का निश्चय किया और वहाँ एक विशाल विद्यापीठ की स्थापना की। सुप्रसिद्ध श्वे. जैनाचार्य 'कलिकाल सर्वज्ञ' उपाधिधारी - 'हेमचंद्र सूरि' को उसने अपने आश्रय में होने वाली साहित्यिक प्रवृत्तियों के नेतृत्व का भार सौंपा।" धारा नगरी के परमार वंश ने जैन विद्वानों को प्रश्रय दिया और ज्ञान के विद्यापीठ को वाग्देवी को समर्पित किया। यह मूर्ति भी मूर्ति भंजकों के आतंक का शिकार हुई और भोजशाला के खण्डहरों में फेंक दी गई। 100-125 वर्ष पूर्व किसी अंग्रेज अधिकारी ने धारा के खण्डहरों में यह प्रतिमा पाई तथा उसे वह अपने साथ इंग्लैंड ले गया। वहाँ उसका पूर्ण संग्रह हिन्दुस्टूअर्ट नामक व्यक्ति के पास गया तथा उसने वह क्वीन्स म्यूजियम को दिया । यही संग्रहालय आगे चलकर ब्रिटिश म्यूजियम में परिवर्तित हो गया । ' श्री वाकणकरजी ने 1961 के अगस्त मास में 28 तारीख को ब्रिटिश म्यूजियम में स्वयं इस मूर्ति को देखा, इसके फोटो लिए और पादपीठ पर अंकितलेख का पेंसिल रबिंग निकाला । पादपीठ पर अंकित लेख कई स्थानों पर कट गया है किन्तु धारा नगरी, भोजराजा, विद्यापीठ व वाग्देवी शब्द स्पष्ट हैं और कई विद्वानों द्वारा पढ़े गए हैं। वाकणकरजी का यह मूल्यांकन विचारणीय है कि 'संभव है कि यह प्रतिमा निर्माण में जैन प्रभाव रहा हो और वह भोज सभा के स्वरूप को देखने पर असम्भाव्य भी नहीं है।' एक जगह उन्होंने फिर लिखा है 'वाग्देवी या विद्याधरी के जैन स्वरूप में सिंह वाहिनी है तथा उसके एक बालक भी होता है, अत: यह प्रतिमालक्षण जैनाग्रह से समाविष्ट किया गया हो ।' प्रयास करने पर भी वाकणकरजी का लिया वह फोटो प्राप्त नहीं हो सका किन्तु उनकी सहयोगी श्रीमती वाकणकरजी व श्री भटनागरजी ने इस आलेख के साथ प्रकाशित चित्र को देखकर स्पष्ट रूप से कहा कि यह फोटो उसी सरस्वती की मूर्ति का ही है। श्री Mr. Kirti Mankodi (श्री किर्ती मंकोडी) ने सूचना दी है कि 1880 ई. में ब्रिटिश म्यूजियम ने एक देवी का शिल्प प्राप्त किया था जो धार के खंडहरों से प्राप्त हुआ था। शिल्प के चित्र का 'रूपम' में 1924 में प्रो. ओ. सी. गांगुली व राय बहादुर के. एन. दीक्षित ने पादपीठ पर अंकित 4 लाईन के लेख सहित प्रकाशन किया। उन्होंने राजा परमार भोज का नाम संवत् 1091 ( 1034 ई.) और वाग्देवी जो सरस्वती का अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 9 www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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