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डॉ. नेमीचन्दजी जैन
अहिंसा और शाकाहार के लिये समर्पित व्यक्तित्व
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. नेमीचन्द जैन को साधारणत: देख कर कोई नहीं कह सकता कि वे कवि, लेखक, पत्रकार, चिन्तक, शिक्षक, भाषा विज्ञानी, समाज और मानवता के सच्चे सेवक हैं। मोटी खादी का कुर्ता-पाजामा, किश्ती नुमा टोपी, कंधे पर झोला और झोले में कुछ साहित्य, पैरों में नायलोन या कपडे की चप्पल या जूते देखकर कोई नहीं कह सकता कि वे बहुमुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं। इस छोटे से आलेख में उनके व्यक्तित्व को समेट पाना दुष्कर कार्य है, फिर भी थोड़ा बहुत प्रकाश डालते हुए मैं उनके अहिंसा और शाकाहार के प्रति समर्पण को ही रेखांकित करने का प्रयास कर रहा हूँ।
'सादा जीवन उच्च विचार' के सूत्र को पूर्ण रूपेण आत्मसात करने वाले डॉ. साहब की सादगी का संकेत तो उपरोक्त पंक्तियों में मिल गया होगा, अब उनके व्यक्तित्व के प्रत्येक आयाम में उनके उच्च विचारों की झलक दृष्टव्य है। वे केवल पेशे से ही नहीं, पूर्ण समर्पित अध्यापक थे। शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति के बढ़ते हुए हाथ के वे विरोधी थे, इस दिशा में उनकी संपादकीय में उन्होंने काफी प्रकाश डाला है। एक भाषाविद् होते हुए भी वे भाषाई दुराग्रहों के पक्षधर नहीं थे। वे लिखते हैं 'केवल भाषाई दुराग्रहों के कारण सारा वातावरण ही विषाक्त हो गया है।' उन्होंने राजेनताओं को आगाह किया है कि वे भूगोल पर अपने भाषाई दुराग्रह को न थोपें । किसी भी राज्य की सीमा का आधार भाषा की अपेक्षा सांस्कृतिक, प्रान्तीय अथवा राष्ट्रीय होना चाहिये। एक चिन्तक होने के कारण वे सामाजिक चिन्तन के दुष्प्रभाव को बरदाश्त नहीं कर पाते थे। वे कहते हैं - 'आज आदमी का चिन्तन लकवा ग्रस्त है। कहने का ढंग लम्बा चौड़ा और लुभावना है पर कथ्य बौना है।' राजनीतिज्ञों से वे कहते हैं कि • समाजवादी समाज रचना की बात करते करते हम दिनोंदिन असामाजिक होते जा रहे हैं।' आज सत्ता के सुविधाभोगी होने पर व्यंग करते हुए वे कहते हैं कि 'कोई भी राष्ट्र सुभीतों से नहीं, संघर्षो से बनता है।' 'संयोगों की अनिवार्यता के भ्रम ने हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या वैयक्तिक जीवन को पेचीदा और दूषित बना दिया है।' जब कोई व्यक्ति सेवा या जनहित के कार्य करता है तब साधन स्वयं उसके चरण स्पर्श करने पहुँचते हैं। यही नहीं पत्रकार की भूमिका को भी रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि वह देश की तमाम अराजकताओं पर अंकुश बने और लोक चरित्र की वस्तुनिष्ठा निष्पक्ष, निडर होकर समीक्षा करे।
अहिंसा को सभी धर्मों में परम धर्म माना गया है। जैन धर्म में तो उसकी सूक्ष्मतम व्याख्या करते हुए रागादि भावों को भी हिंसा कहा गया है। सभी को अपने प्राण प्यारे हैं और सभी सुख चाहते हैं। तभी तो हमें भगवान महावीर ने 'जियो और जीने दो' का सूत्र दिया। पर आज वह मात्र नारा बन कर रह गया है। विश्व में चारों और हिंसक ताण्डव हो रहा हदें लांघती हिंसा हमें जरा भी विचलित नहीं
कर पा रही है। यह ठीक ही कहा है इतना कहकर हम घर में तो नहीं बैठ यह उदासीनता भी तो उतनी ही अक्षम्य है।
अर्हत् वचन, 14 (4), 2002
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कि इसके लिये राजनीति जिम्मेदार है। पर सकते। हमारी अहिंसा और करूणा के प्रति
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