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________________ टिप्पणी-1 । अर्हत् वचन । कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर शाकाहार और स्वास्थ्य रक्षा पर भगवान महावीर के उपदेश आर्यिका ऋद्धिश्री भोजन का उद्देश्य मात्र भूख शांत करना ही नहीं परन्तु स्वाद का आनंद लेने के साथ - साथ शारीरिक स्वास्थ्य बनाये रखना तथा मानसिक एवं चारित्रिक विकास करना भी है। भोजन का हमारे आचार - विचार - व्यवहार, चिंतन-मनन, स्वभाव आदि से गहरा संबंध है। इसीलिये भगवान महावीर स्वामी ने भोजन के संबंध में कहा है कि भोजन कब, क्यों, कितना, कैसा और कहाँ करना चाहिये और कब, क्यों कितना, कैसा और कहाँ नहीं करना चाहिये? भोजन कैसे वातावरण में बनाना, खाना, खिलाना चाहिये? भोजन के स्रोत कितने पवित्र, शुद्ध, सात्विक, अहिंसक, नैतिक होने चाहिये आदि विषयों पर व्याख्या की थी। हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा ये जे नरा। न ते विज्जा तिगच्छंति अप्पाणं ते तिगिच्छग। अर्थात जो हितकारी, परिमित तथा कम बार आहार करते हैं उन्हें चिकित्सक की आवश्यकता नहीं होती है। वे स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं। यही बात आज के आहार विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकांश शारीरिक रोगों का कारण भोजन संबंधी विसंगतियाँ. असावधानी, लापरवाही है जिसका प्रमुख कारण भोजन के बारे में अज्ञानता, स्वादलोलुपता, सम्यग्चिंतन का अभाव, स्वविवेक की कमी, अनैतिक आचरण, संकीर्ण स्वार्थी दृष्टिकोण आदि हैं। हमारे ऋषि, मनीषी, तीर्थकरों ने अपने सत्यज्ञान एवं अनुभव के आधार पर मानव की जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप जिस सहज - सरल रूप से ढालने का निर्देश - मार्गदर्शन दिया, उसके पालन से जनसाधारण का स्वास्थ्य अच्छा रह सकता है। जैसे मौसम के बदलाव से जुडे हमारे त्यौहार, उपासना, आराधना एवं साधना पद्धति, खाने में संयम, व्रत, एकाशन, उपवास, रात्रि भोजन का निषेध, रहन-सहन, खान - पान, वस्त्र - आभूषण, रीति-रिवाज, सुख-दु:ख के प्रसंगों पर सामूहिक भागीदारी द्वारा आयोजित होने वाले समारोहों के पीछे स्वास्थ्य विज्ञान का पूर्ण आधार था परन्तु आज ये सब बातें प्रायः गौण होती जा रही हैं और पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण कर आधुनिकता, फैशन, बाह्य दिखावे की आड़ में बिना सोचे समझे, सम्यकचिंतन मनन विवेक को खोकर अभक्ष्य, अहितकर, दुपाच्य, असंतुलित, बेमौसम के अनुरूप भोजन करते जा रहे हैं जिसके दुष्परिणाम स्वरूप अनेकों बीमारियाँ, विकृतियाँ, समस्याएँ प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो चिंतन, चिंता का विषय है। स्वास्थ्य जो तन, मन, आत्मा के एक संतुलित, अनुशासित, समन्वय का प्रतीक है, कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसको बाजार से खरीदा जा सके, उधार लिया जा सके या चुराया जा सके। स्वस्थ रहना भी एक कला है। भोजन उसका महत्वपूर्ण पक्ष है। अत: हमें अच्छे स्वास्थ्य के लिये चिंतन मनन करना चाहिये कि हमारे भोजन का उद्देश्य क्या है? हम भोजन क्यों करते हैं? भोजन कैसा करना चाहिये? भोजन कब, क्यों, कितना, कैसे वातावरण में करना चाहिये? भोजन कैसे और किन भावों के साथ बनाया, खिलाया जाना चाहिये? भोजन हमारी शारीरिक पाचन प्रणाली के अनुकूल है या नहीं? भोजन में अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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