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सिद्ध शिला, समवशरण की रचना आदि हैं। सराक लोक चित्रकला में अलंकरणों का प्रयोग अपनी विशेषता लिए है। इनके अतिरिक्त स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्य, वर्धमानक्य, भद्रासन दर्पण आदि चित्र मिलते हैं। सराक चित्रकला में पाश्र्श्वनाथ और महावीर के चित्र अधिकांश मिलते हैं। नारी चित्रित करने के लिए तीर्थकरों के दोनों और यक्ष-यक्षिणी तथा तीर्थंकरों की अधिष्ठात्री देवियां अम्बिका, पदमावती सरस्वती शासन चक्रेश्वरी और सोलह विद्यादेवियों के चित्र अंकित किए जाते हैं विविध अनुष्ठानों, विधानों में जैन प्रतीक चिन्ह बनाए जाते
हैं यही प्रतीक चिन्ह आज भी बनाए जाते हैं।
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रंग योजना की दृष्टि से सराक लोक कला कृतियों का अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि प्रारम्भिक काल में इनमें हल्दिया रंगों का प्रयोग अधिक मात्रा में होता था बाद में लाल रंगों का प्रयोग अधिक मात्रा में होने लगा। इसके अतिरिक्त आसमानी पीला, नीला, श्वेत रंगों का भी समावेश किया गया है। सुनहरी स्याही का प्रयोग भी इनमें अधिक होने लगा था। सराक चित्रकला में पौराणिक वनस्पति रंगों का स्थान अब आधुनिक रंगों ने ले लिया है। स्वर्ण रंग जैन चित्रों की विशिष्टता रही है जो आज भी पहले की तरह दिखाई देती है ।
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सराक लोक चित्रकला में वस्त्र, आभूषण, मुकुट और मालाओं की सज्जा पर अधिक ध्यान दिया जाता है। नारी श्रृंगार में माथे पर हिन्दी, कानों में कुण्डल, बांहों में बाजूबन्द आदि का अंकन किया जाता है। गले में रत्न मालाओं को प्रधानता दी जाती है जो सभी चित्रों की विशेषता है वस्त्रों में धोती की सज्जा मोहक / सुफड़ है प्रारम्भिक चित्रों में श्वेत तथा स्वर्णिम रंग की प्रधानता वस्त्रों में अधिक थी जिसका स्थान बाद में ईरानी प्रभावी के कारण बेलबूटों की पच्चीकारी ने ले लिया। बाद के चित्रों में मुकुट के स्थान पर पगडियों का अंकन होने लगा। जहां पुरुषों के वस्त्रों में धोती व दुपट्टे प्रमुख हैं वहां नारी चित्रों में कंचुकी, रंगीन धोती, चुनरी और कटिपट का प्रयोग मिलता है।
इस प्रकार सराक चित्रकला की परम्परा के अन्तर्गत जो कार्य हुआ है उसने भारतीय चित्रकला का विकास मार्ग प्रशस्त किया है। चित्रकला की लोक पद्धति की शैलियों में जैन सराक चित्रकला प्रमुख रही है। देश में जैन चित्रकला के माध्यम से यह परम्परा अनवरत चलती रही। भारतीय चित्र शैलियों में वेलबूटों की जन्मदात्री सर्वप्रथम जैन चित्रकला ही रही है। जैन चित्रकला ने अपनी परम्परागत धार्मिक निष्ठा स्थिर बनाए रखी। लोककला के उन्नत स्वरूप के रूप में इस कला में अल्पना चित्र का अंकन किया जाता रहा है साथ ही मिट्टी, पत्थर व हाथी दांत पर भी चित्र उकेरे जाते थे।
सराक क्षेत्र के भित्ति चित्रों में खनिज रंगों का उपयोग मिलता है। इनमें कुछ मूल रंग ही होते हैं जिनमें केनडी (हल्का हरा), हिर मिजी (हरा), सिमरिक (लाल), नील (नीला), त्योडी ( भाऊ अंवर), काजल आदि हैं। रंगों के खनिज पत्थरों को घिस कर उनमें किरेटिन या गोंद मिलाकर तैयार किया जाता है. ये रंग अधिक समय तक स्थायी बने रहते हैं काला रंग बुझा हुआ चूना, गोंद का काजल है काले रंग से भित्ति अलंकरण भी बनाए जाते हैं, काली रंग का उपयोग होता है।
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पौराणिक भित्ति चित्रों में स्वर्ण रंग की प्रधानता रही है जो आज भी मंदिरों की चित्रकारी में विद्यमान है। स्वर्ण के टुकड़े को साइनाइट में रख देते हैं वह धीरे धीरे तरल होने लगता है। इस स्वर्ण लेप को चित्रों में लगाया जाता है।
मिलाकर तैयार किया जाता स्याही के रूप में इसी काले
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अर्हत् वचन 14 (4), 2002
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