SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमुख थे। उन्होंने पुष्पदंत एवं भूतबलि को बारहवें अंग - दृष्टिप्रवाद के अंतर्गत पूर्वो तथा पांचवें अंग व्याख्या -प्रज्ञप्ति के कुछ अंशों की शिक्षा दी थी। आचार्यश्री से प्राप्त ज्ञान के आधार पर इन दोनों मुनिवरों ने वीर निर्वाण संवत् की सातवीं शताब्दि में बीसादिरूप सत्कर्म पाहुड के छह हजार सूत्रों की तथा बाद में भूतबलि ने शेष तीस हजार सूत्रों की रचना की थी। यही रचना आगम परमागम षट्खंडागम के नाम से विख्यात है। गणधरों द्वारा प्रस्तुत श्रुत सूत्रों को मूलरूप में लिपिबद्ध करने के कारण यह प्रमाणिक हैं। गोम्मटसार के टीकाकार ने इसे 'परमागम", श्रुतावतार के रचियता आचार्य इंन्द्रनन्दि ने इसे 'षटखंडागम" तथा धवलाकार आचार्य वीरसेन ने इसे "खंड सिद्धात' कहा है। षटखंडों में लिपिबद्ध इस सिद्धांत ग्रंथ के पूर्ण होने पर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ द्वारा इस सिद्धांत ग्रथ की विशेष पूजा अर्चना की गई थी। तभी से यह तिथि श्रुत पंचमी के रूप में, जैन जगत में अपना विशेष स्थान एवं महत्व रखती है। षट्खंडागम में आगम सिद्धांतों की विवेचना छह खंडों में निम्न प्रकार की गई है - 1. जीवट्ठाण - में सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अतर, भाव एवं अल्पबहत्व - इन आठ अनुयोग द्वार तथा प्रकृति, समुत्कीर्तना, तीन महादण्डक, जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति व गति - अगति - इन नौ चूलिकाओं में गुणस्थान एवं मार्गणाओं का आश्रय लेकर जीव द्रव्य का विस्तृत विवेचन किया गया है। 2. छुल्लकबंध - में स्वामित्व, काल, अंतर, भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, जीवकाल, जीव अंतर, भागाभागानुगम, अल्पबहुत्वानुगम, इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबंध करने वाले जीव का कर्म बंध के भेदों सहित वर्णन है। 3. बंध स्वामित्वविचय - में किसी जीव को कितनी प्रकृतियों का कहां तक बंध होता है, किसे बंध नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों की किस गुणस्थान में व्यच्छित्ति होती है, स्वोदय एवं परोदय बंध प्रकृतियां कितनी हैं - कौन कौन हैं - आदि के सान्निध्य में जीव की बंधक प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है। 4. वेदना - खंड के प्रारंभ में गौतम गणधर द्वारा किया मंगलाचरण दिया गया है। इस खंड के दो मुख्य भेद हैं - कृति अनुयोगद्वार तथा वेदना अनुयोगद्वार। कृति अनुयोग द्वार में औदारिकादिक पांच शरीरों की संघातन, परिशीतन तथा संघातक परिशीतन कृतियों का कथन है तथा वंदना अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठकर्मो का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यय स्वामित्व, गत्यतर, सन्निकर्म, परिमाण व भागाभाग की अपेक्षा कथन किया गया है। 5. वर्गणा - में कर्म प्रकृतियों तथा पुदगल की 23 वर्गणाओं व स्पर्श, कर्म, प्रकृति एवं बंध के साथ-साथ कर्मबंध की कारण भूत मार्गणाओं का विवेचन किया गया है। 6. महाबंध - मूल प्रकृतियों एवं उत्तरकर्म प्रकृतियों की अपेक्षा से प्रकृतिबंध स्थितिबंध. अनुभागबंध एवं प्रदेशबंध - इन चतुर्विध बंधों का इस खंड में विस्तृत वर्णन किया गया है। "श्रुतावतार' के अनुसार षट्खंडागम के प्रथम पांच खंडों की रचना पूर्ण होने के पश्चात स्वयं आचार्य भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण इस खंड की रचना की थी। आचार्य वीरसेन ने ईसा की नवमी शताब्दी में पुष्पदंत एवं भूतबलि द्वारा रचित षट्खंडागम के प्रथम पाच खंडों पर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण एक वृहत् टीका लिखी थी। यही टीका 'धवला' के नाम से विख्यात है। षट्खंडागम के लिपिबद्ध होने के काल से धवला टीका के पूर्व तक कुछ अन्य आचार्यों ने भी षट्खंडागम की टीकाएं की है किन्तु उनमें से कोई भी टीका आज उपलब्ध नहीं है। आचार्य इंद्रनंदि ने अपने "श्रुतावतार" में षट्खंडागम पर रचित कुछ टीकाओं का उल्लेख किया है। यथा - अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy