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________________ गये हैं पृथ्वीकाय, अपकाय (जलकाय), तेउकाय (अग्नि या तेज), वायुकाय तथा वनस्पतिकाय । ये स्थावर जीव हैं, जबकि त्रस जीव के चार प्रकार बतलाये गए हैं - दीन्द्रिय (दो इन्द्रिय), त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय उसी प्रकार जैन धर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति में देवत्व की नहीं, बल्कि जीवत्व की अवधारणा की बात कही गयी है। उपर्युक्त जीव स्थिर हैं और जीवत्व से संपूर्ण ब्रह्माण्ड ओतप्रोत है। जैनियों के अनुसार पृथ्वी सजीव है और इसकी हिंसा नहीं होनी चाहिए। इसके छत्तीस तत्व बतलाये गये हैं जैसे मिट्टी, आलू, लोहा, तांबा, सोना और कोयला वगैरह इन सभी प्राकृतिक सम्पत्तियों का अत्यधिक दोहन शोषण नहीं होना चाहिए। इस प्रकार जलकायिक जीवों की भी हिंसा नहीं होनी चाहिए। साहित्यों में जल को दूषित नहीं करने तथा अनावश्यक रूप से उसकी बरबादी न करने की सलाह भी दी गई है। प्रदूषित जल से मानव और जल में रहने वाले जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। जैन सिद्धांतों में वनस्पति को जीवात्वा माना गया है तथा उसमें चेतना की बात स्वीकार की गई है। यहां वनस्पति, प्राणी, भूतत्व और वायु के आपस में गहरे संबंध हैं, यह स्पष्ट किया गया है। वैज्ञानिक शोध भी इसे स्वीकारते हुए यह बतलाती हैं कि पारिस्थितिक रूप से पौधे, जीव और जानवर तक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं किसी भी समूह में हस्तक्षेप से दूसरे वर्ग पर उसका कुप्रभाव पड़ सकता है वनस्पति से जहां हम करते हैं, वहीं वे हमें शुद्ध प्राणवायु आक्सीजन ग्रहण फूल फल प्रदान करते हैं तथा वर्षा को लाने में सहायक बनते हैं वृक्ष से भूमि और वायु का अवशोषण होता है। वनस्पति की उपेक्षा हम नहीं कर सकते हमारे चारों ओर की हरी भरी भूमि हवा तथा पानी हमारा पर्यावरण है। अपने स्वार्थ में हम जहां उन्हें नष्ट कर रहे हैं, वहीं प्रकृति के अविभाज्य I अंग पशु पक्षियों की भी निर्मम हत्या की जा रही है जैन साहित्य में पशु पक्षियों तथा पेड-पौधों के साथ दुर्व्यवहार की निंदा एवं उनके प्रति हिंसा की भावना का विरोध किया गया है जिन कीड़े मकोड़ों को हम बेकार समझते हैं, जैसे केंचुए, मेंढक और सांप वगैरह, वे भी हमारी फसल के लिए उपयोगी हैं। उधर जंगलों की बेतहाशा कटाई से दिन प्रतिदिन वर्षा की कमी महसूस की जा रही है। इससे एक तरफ तो हवा में धूल और जहर का प्रवेश हो रहा है, तो दूसरी तरफ चायुमंडल का तापमान बढ़ता जा रहा है। पौधों को काटकर जहां हम अनावश्यक हिंसा बढ़ा रहे हैं, वहीं इससे प्रदूषण की वृद्धि भी होती जा रही है। जैन धर्म में हजारों वर्ष पहले ही पेड़ पौधों के साथ तृण तक में जीव के अस्तित्व की बात स्वीकार कर ली गई थी। आज हमारे लोभ के कारण वन सम्पदा तेजी से घट रही है, जिससे प्राकृतिक संतुलन और पर्यावरण बिगड़ रहा है। जैन दर्शन में कहा गया है कि यदि किसी जीव के द्रव्य या प्राण को मन, वचन या कर्म से कष्ट पहुंचाया जाता है, तो यह हिंसा है अहिंसा के अन्तर्गत मात्र जीव हिंसा का त्याग ही नहीं आता, बल्कि उनके प्रति प्रेम का भाव भी व्यक्त करना धार्मिक कृत्य माना गया है। यहां अहिंसा से तात्पर्य मानव संयम और विवेक से है। प्राणियों के कल्याण के लिए व्यक्ति को राग-द्वेष और कटुवचन का त्याग करना चाहिए । विवेक अहिंसा को जन्म देती है, जबकि हिंसा से प्रतिहिंसा होती है। मानव की हिंसक भावना से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। जैनधर्म के सिद्धांतों एवं उनके आचार विचार के अलावा हमें तीर्थकरों तथा जैन मुनियों के जीवन की घटनाओं से भी उनके प्रकृति के प्रति लगाव व प्रेम की झलक दिखलाई पड़ती है उन लोगों ने हजारों वर्ष पहले से ही स्वयं अपने को प्रकृति के अधिक अर्हत् वचन, 14 (2-3), 2002 42 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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