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________________ पूर्ण विश्वास है कि जैन विद्या के अध्येता शोधकों का पूर्ण सहयोग हमें प्राप्त होगा। हम स्वयं भी अर्हत् वचन के प्रत्येक अंक को समय पर प्रकाशित करने, प्रकाशनार्थ प्राप्त सामग्री की मूल्यांकन/समीक्षा अवधि कुछ माह तक सीमित करने, प्रकाशन अवधि को कम करने हेतु अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं। वर्ष 2001 एवं 2002 में प्रकाशन हेतु प्राप्त प्रकाशनाधीन / समीक्षाधीन किन्तु अमानकीकृत सामग्री हम माननीय लेखकों को इस आग्रह के साथ सखेद प्रेषित कर रहे हैं कि वे नवीन घोषित प्रारूप में संयोजित कर 2 प्रतियों में इसे पुन: प्रेषित करने का कष्ट करें। हम प्राथमिकता के आधार पर उनके प्रकाशन का निर्णय कर यथाशीघ्र सूचना प्रेषित करेंगे। अर्हत् वचन में प्रकाशनार्थ अकादमिक सूचनायें, आख्याएँ संक्षिप्त रूप में यथासंभव सचित्र प्रेषित करें। विगत 14 वर्षों में अपना निस्पृह सहयोग प्रदान करने वाले सम्पादक मंडल के माननीय सदस्यों, दि. जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के ट्रस्टियों, विज्ञ लेखकों एवं सुधी पाठकों के प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं एवं आशा करते हैं कि प्रस्तावित परिवर्तनों के अन्तर्गत भी हमें उनका यथेष्ट सहयोग मिलता रहेगा। हम विशेष रूप से ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल, निदेशक प्रो. ए. ए. अब्बासी एवं कोषाध्यक्ष श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल के प्रति आभार ज्ञापित करते हैं, जिनके समर्पण का ही प्रतिफल है अर्हत् वचन का नियमित प्रकाशन । पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है। 10.12.02 डॉ. अनुपम जैन 8 मुखपृष्ठ चित्र परिचय सक्करा (मिश्र) में 26802565 ई.पू. की यह बैठी हुई प्रतिकृति हमारा ध्यान बरबस आकृष्ट करती है। भारत और मिश्र के प्राचीन सुदृढ़ सन्दर्भों के प्रकाश में इस कृति पर विचार किया जाना चाहिये। यह मान्यता है कि इस व्यक्ति ने मिश्र में लेखन का सूत्रपात किया पद्मासन मुद्रा में बैठा यह शिल्प भारतीय अवधारणाओं के अनुसार है मूर्ति का दिगम्बरत्व व शरीर व सिर का सीधापन जैन मुनियों का प्रतिरूप नजर आता है। किसी भी वैदिक और मिश्री अवधारणा में नम्न मुद्रा का चलन नहीं हैं किन्तु जैन परम्परा में नग्न मुद्रा प्रारम्भ से ही प्रचलित है। यद्यपि इस शिल्प के साथ जैन या भ्रमण शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु शिल्पी सन्दर्भ में इसे जैन ही मानेंगे। यदि हम शिल्प के बनावट (Physiognomical) पर भी ध्यान दें तो वह भारतीय जैन मुद्रा के सिद्ध होते हैं। इसी सन्दर्भ में जे. आर. एंथ्रोपोलाजी इन्स्टीट्यूट में 1927 में अपनी अध्यक्षीय भाषण में पी. के. ने कहा 'मिश्र के राजा न केवल अन्न (गेहूं व बार्ली) का आयात भारत से करते थे वरन् कुशल शिल्पियों का भी आयात करते थे। मिश्र की तीसरी पीढ़ी के राजा जोसर (Djosar) (2780-2762 ई.पू.) के काल में ऐसे आयातों के सन्दर्भ हैं। सन्दर्भ : The Aryan History of Vedic Period, लेखक K. C. Aryan and S. Aryan, पृ. 201203 Jain Education International For Private & Personal Use Only सूरजमल बोबरा सदस्य- संपादक मंडल अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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