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________________ गतिविधियाँ इलाहाबाद वि.वि. में धर्म एवं संस्कृति संगोष्ठी सम्पन्न 3 सितम्बर 2002 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग में पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के मुख्य उद्बोधन के साथ 'धर्म एवं संस्कृति गोष्ठी' का भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी एवं क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी महाराज के सारगर्भित उद्बोधनों के साथ विश्वविद्यालय की ओर से प्रो. ओमप्रकाश यादव (पूर्व विभागाध्यक्ष - प्राचीन इतिहास विभाग) का प्रभावक वक्तव्य हुआ। कार्यक्रम का सफल संचालन किया, डॉ. ओ. पी. श्रीवास्तव (प्रा. इति. विभाग) ने। सभाध्यक्ष थे वि.वि. के कला संकाय के डीन प्रो. ए. आर. एन. श्रीवास्तव (सम्प्रति विभागाध्यक्ष)। प्रो. गीतादेवी, डॉ. मृदुला रविप्रकाश (अध्यक्ष - दर्शन शास्त्र विभाग), प्रो. बी. डी. मिश्र, डॉ. एच. एन. दुबे, प्रो. हरिमोहन जैन, प्रो. के. जी. श्रीवास्तव (अंग्रेजी विभाग), डॉ. आर. डी त्रिपाठी, डॉ. अनामिका राय, डॉ. सुषमा श्रीवास्तव, प्रो. जे. के. जैन इत्यादि अनेक विश्वविद्यालयीन प्राध्यापकों ने पूज्य माताजी की अमृतवाणी को मंत्रमुग्ध होकर सुना। गृह सचिव - उ.प्र. श्री श्रीराम यादव ने भी इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त किये। वि.वि. के विद्यार्थियों एवं जैन समाज के विशिष्टजनों सहित काफी संख्या में विद्वान श्रोतागण इस संगोष्ठी में उपस्थित रहे। गणिनी माताजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा मलकति कि धर्म शाश्वत है चलनः समाजमा जबकि सम्प्रदाय समय पर बनते बिगड़ते रहते हैं। वस्तुत: अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं, जिन्हें धारण कर हम भी तीर्थंकर बन सकते हैं। अहिंसा से ही विश्वशांति संभव हो सकती है। संस्कृति संस्कार से नि:सृत है। संस्कृति विकृत हो सकती है पर धर्म नहीं। पूज्य माताजी ने कहा कि विश्वविद्यालय सृजन के लिये हैं, विश्व को शांति का संदेश प्रदान करने के लिये हैं। इतिहास लेखकों को विविध धर्मों का इतिहास उनके धर्माचायों से वार्ता करके लिखना चाहिये ताकि किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचे। इस अवसर पर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ प्रयाग के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन की ओर से वि.वि. को साहित्य रखने हेतु एक आलमारी तथा पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य भेंट किया गया। इस प्रभावक संगोष्ठी की वि.वि. में काफी प्रशसा की गयी। सुधी श्रोताओं का कहना था कि संत बिनोबा भावे के पश्चात आज किसी महान संत के चरण वि.वि. परिसर में पड़े हैं, यदि इसी प्रकार के मंगल उद्बोधन छात्रों को समय - समय पर प्राप्त होते रहें तो उनका जीवन एवं आचरण सुधर सकता है। .ब. (कु.) स्वाति जैन, संघस्थ 107 अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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