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जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम् जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः काल की स्वीकृति आवश्यक है। कालवादी दार्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्व स्वीकार करते हैं। 36 इतना भी न माने तो भी विश्व व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्व तो काल को मानना ही होगा। संदर्भ
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1. पञ्चास्तिकाय गाथा 7 गच्छेति दवियभावं ते देव अधिकाया तेकालियभावपरिणदां णिच्या परिणलिंगसंजुत्ता ॥
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2. ठाणं, 2 / 387, समयाति वा आवलियाति वा, जीवाति वा अजीवाति वा ।
3. पातंजलयोगदर्शनम्, (संपा. स्वामी हरिहरानन्द, दिल्ली, 1991 ) 3/52, स खल्वयं कालो वस्तुशून्यो बुद्धिनिर्माणः शब्दज्ञानानुपाती लौकिकानां व्युत्थितदर्शनानां वस्तुस्वरूप इवावभासते ।
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4. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 13 / 61-71
5. वही, 2 / 124
6. वही 5 / 248
7. द्रव्यसंग्रह, (ले, नेमिचन्द्र, मथुरा, वी. नि. सं. 2475), गाथा 22 हु एकेका रयणानं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥
8. संघवी सुखलाल, दर्शन और चिंतन, (अहमदाबाद, 1957) खण्ड 1-2 पृ. 333
9. मालवणिया दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 214
10. उत्तरज्झवणाणि 28 / 10 का टिप्यण, पृ. 148
11. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 20 / 40, चउविहे परमाणु पण्णत्ते, तं जहा दय्वपरमाणू खेत्तपरमाणू, कालपरमाणू
भावपरमाणू ॥
12. वही, 2 / 125-129
13. भगवतीकृति पत्र 788 विवक्षणादिति एवं क्षेत्र प्राधान्यविवक्षणात् ।
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तत्र द्रव्यरूपः परमाणुर्द्रव्यपरमाणुः
एकोऽपुर्वर्णादिभावानामविवक्षणात् द्रव्यत्वस्यैव परमाणु आकाश प्रदेश: कालपरमाणु समय: भावपरमाणुः परमाणुरेव वर्णादिभावानां
14. Mookerjee, Satakari, Illuminator of Jaina Tenets P. 14 (footnote) samaya, being the smallest indivisible quantum of time, can perhaps be appropriately called called time-point.
15. पातंजलयोगदर्शनम् 3 / 52 यथापकर्षपर्यन्तं द्रव्यं परमाणुरेवं परमापकर्षपर्यन्तः कालः क्षणः ।
16. भगवतीवृत्ति पत्र 788
17 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (संपा. जिनेन्द्रवर्णी, दिल्ली, 1986) भाग 2 पृ. 84, समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूपः
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प्रसिद्धः स एव पर्यायः न द्रव्यम् तच कालपर्याय स्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि।
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18. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10 / 143, मन्दगत्याप्यणुर्यावत्प्रदेशे नसभः स्थितौ ।
याति तत्समययस्यैव स्थानं कालाणुरुच्यते ॥
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20. वही, 10/16 प्रणयोर्ध्वत्वमेतस्य द्वयोः पर्याययो भवत्। तिर्यक्प्रचयता नास्य प्रदेशत्वं विना क्वचित् ॥ 21. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 195
लोगागासपदेसे, एकेक जे ठिटा
19. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10 / 16 वृ. (पृ. 179 )
परन्तु स्वन्धस्य प्रदेशसमुदायः कालस्य नास्ति तस्माद्धर्मास्तिकायादीनामिव तिर्यक्प्रचयता न संभवति एतावता तिर्यक्प्रचयत्वं नास्ति। तेनैव कालद्रव्यमस्तिकाय इति नोच्यते ।
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अर्हत् वचन, 14 (23), 2002
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