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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) वर्ष-14, अंक - 2 - 3, 2002. 31 - 33 गणनकृति : स्वरूप एवं विवेचन -प्रो. उदयचन्द्र जैन* "क्रियते इति कृति' - जो किया जाता है वह कृति है। "क्रियते अनया इति व्यत्पत्ते:' - जिससे किया जाता है वह कृति है। "कदी कज्जं - कृति कार्य है। किसी भी विषय की रचना, विवेचन, प्ररूपणा, निरूपण, व्याख्यान, आख्यान, प्रवचन, कथन, विशेष प्रतिपादन आदि कृति हैं। 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो त्ति कट्ट कदि - अणिओगद्दार - परूवणट्ठमुत्तर सुत्तं भणदि (ष. 4/9/236) जैसा उद्देश्य होता है, वैसा ही निर्देश होता है, ऐसा समझकर कृति की जाती है। उसी कृति के अनुयोग (अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है) द्वार (पृथक-पृथक पदों के अभिप्राय) की प्ररूपणा की जाती है। 'जत्तिएहि पदेहि जोड्समम्गणाणं पडिबद्धेहि जो अत्थो जाणिज्जदि तेसिं पदाणं तत्थुप्पण्ण - णाणस्य य अणियोगो ति सण्णां' (4/9/24) अर्थात् जितने पदों से चोदहमार्गणाओं का जो अर्थ माना जाता है उन पदों का उनसे उत्पन्न ज्ञान की अनुयोग संज्ञा होती है। मार्गणा का अर्थ अन्वेषण, गवेषण भी है। जहाँ, सत्, संख्या आदि विशिष्ट चौदह जीव समासों का अन्वेषण किया जाता है। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, संज्ञा और आहार का जहाँ अन्वेषण होता है वहाँ अनुयोगद्वार है। चौबीस अनुयोगद्वारों में कृति का प्रथम स्थान है, जिसमें विविध प्रकार के औदारिक आदि शरीर का संघातन, परिशीलन का वर्णन किया जाता है तथा सबके प्रथम, अप्रथम, चरम और अचरम समय में स्थित जीवों की कृति, नोकृति और अव्यक्तव्य रूप संख्याओं की प्ररूपणा की जाती है। कृति के नाम, स्थापना, द्रव्यकृति, गणनकृति, ग्रन्थकृति करणकृति और भावकृति ये सात अधिकार हैं। इन सब कृतियों को 'णइगम - ववहार-संगहा सव्वाओ' (ष. 4/9/240) नैगम, व्यवहार और संग्रह नय में स्वीकार किया गया है। गणनकृति स्वरूप - गणनकृति में गणना विशेष को महत्व दिया जाता है। "एक्कमादि काण जाव उक्कस्साणंतेत्ति ताव गणणा त्ति वुच्चदे (ष. 4/9/276) एक को आदि से लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक की जो राशि कही जाती है वह 'गणना' है। गणना - "एक्कादि - एयादिया' - एक से प्रारंभ करना। संख्या / संख्यात - 'दो आदीय वि जाण संखे त्ति' - दो आदि से उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना 'संख्यात' कहलाती है। कृति - गणनाकृति - 'तीयादीणं णियमा कदि त्ति सण्णा दु बोद्धव्वा' - तीन से लेकर उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना की जाती है। वह कृति गणनाकृति संज्ञा को प्राप्त करती है। 'गणणकदीएपयदं (4/9/452) गणना के बिना अनुयोगदार नहीं बन सकता। जह चिय मोराण सिहा णायाणं लंछणं च सत्थाणं। ___ मुमवारूढं गणियं तत्थदभासं तदो कुज्जा ॥ (ष. 4/9/452) जसे मयूरों की शिखा मुख्यता रूढ़ लक्षण है, वैसे ही न्यायशास्त्र का लक्षण गणक/ गणित गणनकृति के भेद - णोकदी (नो कृति - एक गणना प्रकार - एओ णोकदी - एक संख्या नोकृति है, क्योंकि * रीडर - मोहनलाल सुखाड़िया वि.वि., उदयपुर निवास-पिऊ कुंज, अरविन्दनगर, उदयपुर (राज.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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