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________________ जो एक अलग ही बात कहता है। हम बिना किसी टिप्पणी के इसे अविकल रूप में छाप रहे हैं। हमारा विनम्र आग्रह है कि आस्था के केन्द्रों से छेड़छाड़ उचित नहीं है। इस प्रसंग को लेकर समाज में मनमुटाव होना किसी दृष्टि से भी हितकर नहीं है। यदि हमने अपनी सुस्थापित परम्परायें छोड़ दी तो हम प्रगति कदापि नहीं कर सकते हैं। यदि परम्परा को छोड़कर छलांग लगाने का प्रयास करेंगे तो हश्र क्या होगा यह प्रबुद्ध पाठकों को बताने की जरूरत नहीं है। भारतवर्षीय दिगम्बर (जैन श्रुत संवर्द्धिनी) महासभा का गठन लखनऊ से प्राप्त समाचार के अनुसार श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन धर्मसंरक्षिणी एवं तीर्थ संरक्षिणी महासभा के बाद अब श्रुत संवर्द्धिनी महासभा का गठन किया गया है। यह महासभा एजूकेशन बोर्ड का नया नाम है। हम इसका स्वागत करते हैं। मुझे याद आ रहा है कि 1981 में डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' (नागपुर), डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ( जयपुर ) एवं मुझे स्वयं शिक्षानीति बनाने का दायित्व दिया गया था किन्तु अनेक बार सम्पर्क के बाद भी एक भी बैठक नहीं हुई। 10-5 वर्ष बाद फिर एक बार चर्चा आई किन्तु परिणाम अभी तक शून्य है। अब नये नाम एवं पूरे उत्साह के साथ स्वयं सेठीजी ने पहल की है। सेठीजी की घोषणा 'यह संस्था जैन समाज के विद्यालयों की स्थिति सुधारने, कम्प्यूटर शिक्षा, धार्मिक शिक्षा की दिशा में कार्य करेगी और इसका लक्ष्य एक जैन विश्वविद्यालय की स्थापना करना भी रहेगा। यह संस्था सभी विद्यालयों की सहयोगी रहेगी तथा भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।' स्वागत योग्य है। हमें विश्वास है कि यह संस्था जैन धर्म, दर्शन एवं साहित्य की महान परम्पराओं का संरक्षण करते हुए प्रगति की ओर कदम बढायेगी एवं अपने लक्ष्य प्राप्त कर सकेगी। हम महासभा को वांछित सहयोग प्रदान कर प्रसन्न होगें। इस उपक्रम की सफलता हेतु कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ। - वर्ष 13 ( 34 ) के बाद 14 (2-3) के रूप में पुनः हमें सयुक्तांक देना पड़ा। हम पाठकों की पीड़ा को समझते हैं एवं आशा करते हैं कि महान परम्पराओं के संरक्षण एवं प्रचार प्रसार की नवीन प्रेरणाओं से जनित उत्साह हमें इतनी शक्ति देगा कि आगामी अंक नियमित एवं यथासमय मिलते रहें । अहिंसा, शाकाहार एवं पर्यावरण संरक्षण पर यथेष्ट मौलिक सामग्री न प्राप्त होने के कारण प्राप्त सामग्री को आगामी अंक 14 (4) की सामग्री में समाहित में ही प्रकाशित कर रहे हैं। सुधी पाठकों को हुई असुविधा हेतु कि उनका स्नेह एवं संरक्षण हमें पूर्ववत मिलता रहेगा। प्रस्तुत अंक में सामग्री संयुक्तांक के कारण ही दी है। 42 अंक के प्रकाशन में संरक्षण हेतु मैं आश्रम ट्रस्ट के सभी ट्रस्टियों, निदेशक मंडल तथा सम्पादक मंडल के सभी सदस्यों एवं सहयोग हेतु ज्ञानपीठ परिवार के सभी सदस्यों अरविन्दजी, सुरेखाजी, मानिकचन्दजी, नीतूजी आदि को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। 13.9.02 डॉ. अनुपम जैन Jain Education International कर नया अंक नवम्बर खेद है एवं आशा है हमने सामान्य से अधिक For Private & Personal Use Only अर्हत वचन. 14 (2-3). 2002 www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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