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________________ अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी धर्म और विज्ञान ■ जतनलाल रामपुरिया * धर्म निराकार है, श्रद्धा उसे आकार देती है। धर्म अगोचर है, श्रद्धा उसकी सत्ता का बोध कराती है। धर्म निर्मल हृदय से निःसृत भावों की पवित्रता है, श्रद्धा उसे स्थूल क्रियाओं में अभिव्यक्त करती है। एक बिन्दु पर पहुंचकर हर मनुष्य उस बात को धर्म मान लेता है जहां श्रद्धा उसे स्थिर करती है। इसलिए धर्म के संदर्भ में श्रद्धा बीज रूप है । चिंतन के क्षितिज पर एक पड़ाव ऐसा भी आता है जहां न विज्ञान काम करता है न तर्क शरण देती है। श्रद्धा ही वहां मनुष्य को भटकने से बचाती है। पर बीज को वृक्ष का रूप लेने के लिए आवरण चाहिए मिट्टी का पोषण चाहिए पानी का । श्रद्धा का बीज भी इच्छित फल तब देता है जब उसे शोध की उर्वर धरती मिले और साथ ही जिज्ञासा का अमृत पानी । अकेली श्रद्धा छद्म भेष में अंधानुकरण की वृत्ति है। प्रथम आवृत्ति में वह व्यक्ति के मौलिक चिंतन को अवरूद्ध करती है। असहिष्णुता, विघटन, हिंसा और ध्वंस उसकी अंतिम और अनिवार्य परिणतियां हैं। - 6 जिज्ञासा और शोध की वृत्ति ज्ञान के प्रथम सोपान हैं। इन पर आरूढ़ ज्ञान की पूर्णाहुति विज्ञान है। भगवान महावीर ने सम्यक् ज्ञान को अपनी आध्यात्म यात्रा का आदिबिन्दु बाना । "सम्यक्" शब्द पूर्णता का द्योतक है। सम्यक् ज्ञान की परिभाषा भी इसलिए उतनी ही व्यापक है और इस परिभाषा में विज्ञान की परिभाषा समाहित है। आध्यात्म की साधना ज्ञान के सम्यक्त्व के बिना नहीं होती और ज्ञान का सम्यक्त्व जड़ और चेतन - दोनों के गुण धर्म समझे बिना नहीं सधता । यह संपूर्ण सृष्टि एक ही सूत्र से संचालित है इसलिए पुण्य और पाप की गुत्थियों को द्रव्य जगत और भाव जगत दोनों की गहराइयों में उतरकर ही समझा जा सकता है। इस प्रतिपादन के साथ भगवान महावीर ने आध्यात्म के क्षेत्र में संपूर्ण एक नया अध्याय खोला। Reason और Logic को सामने रखकर उन्होंने एक वैज्ञानिक की पद्धति से क्रिया और प्रतिक्रिया के अटूट सम्बन्धों की आध्यात्म के धरातल से व्याख्या की । यही उनका अनूठापन था। उन्होंने देखा कि आत्म जगत की जटिलताओं का विश्लेषण पदार्थ जगत घन परिक्रमा के बिना संभव नहीं। इसीलिए सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में व्याप्त इस सृष्टि के नियामक जिन सात तत्वों का जैन धर्म में गहन विवेचन है "अजीव" उनमें से एक है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव पदार्थों में अजीव का उल्लेख अकारण नहीं बल्कि प्रयोजनवश है रूप में जीव की व्याख्या है। अजीव को जाने बिना जीव का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता और अजीव एवं जीव दोनों के अन्तरंग अवलोकन के बिना ज्ञान पारदर्शी नहीं बनता। बिना पारदर्शी ज्ञान के धर्म पारदर्शी नहीं बनता । क्योंकि अजीव की परिभाषा ही परोक्ष Jain Education International भगवान महावीर ने इसीलिए विज्ञान की पृष्ठभूमि से आध्यात्म की खोज की और आध्यात्म के अंतरंग में विज्ञान को देखा। इन दोनों के विलय में उन्होंने सत्य के दर्शन किए और अपने जीवन को जन्म और मृत्यु के हेतुओं की तलस्पर्शी मीमांसा करने की प्रयोगशाला बनाया। आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का भगवान महावीर का यह सूत्र हमें किस नये क्षितिज पर ले चलता है, सम्प्रति हमारी वार्ता इसी के विश्लेषण पर केन्द्रित है। अर्हत वचन 14 (2-3). 2002 For Private & Personal Use Only 109 www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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