________________
अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
टिप्पणी- 1 स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म का सन्धान
- जतनलाल रामपुरिया*
एलिजाबेथ शार्प एक प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखिका हुई हैं। प्राचीन विद्याओं का अध्ययन करने हेतु वे भारत आई और कई वर्षों तक यहीं रहीं। उन्होंने भारतीय दर्शन, औषधि विज्ञान, योग आदि विषयों पर अनेक शोध - खोज पूर्ण पुस्तकें लिखीं। लुजाक एण्ड कम्पनी, लन्दन द्वारा सन् 1938 में प्रकाशित उनकी एक पुस्तक का नाम है - The Great Cremation Ground (महाश्मशान)। इस शीर्षक की कल्पना के पीछे उनका आशय संभवत: 'निर्वाण' या 'मोक्ष' रहा। जो भी हो, मुझे इस अनूठे शीर्षक ने उक्त पुस्तक को पढ़ लेने का निमंत्रण दिया।
इस पुस्तक में विदुषी लेखिका ने जैन धर्म और उपनिषदों का संक्षिप्त मगर अत्यन्त युक्तिपूर्ण तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उपसंहार में उन्होंने जैन धर्म के बारे में जो अपना निष्कर्ष दिया है, उसका एक अंश नीचे उद्धृत है -
The Jaina Philosophy is an almost perfect one and the flaws in it are due rather to the largeness of the subject discussed than to the philosophy itself.
जैन दर्शन अपने आप में लगभग निर्दोष और पूर्ण है। इसमें जो कमियाँ हैं वे वस्तुत: विवेचित विषय के बहुत विस्तृत होने के कारण हैं, न कि इसके दर्शन (तत्वज्ञान) जनित।
भिन्न धर्म की अनुयायिनी, एक पाश्चात्य लेखिका द्वारा एक प्राच्य धर्म का इतना सटीक विश्लेषण आह्लादकारी है। जैन दर्शन सचमुच इतना सूक्ष्म, इतना गहन और चिन्तन के विभिन्न क्षितिजों पर इतना फैला हुआ है कि एक अध्ययनशील और जिज्ञासु व्यक्ति भी इसकी सम्पूर्ण गहराई तक पहुँचते-पहँचते स्वयं को थका हुआ सा अनुभव करता है। क्यों हुआ ऐसे? इसका विशाल कलेवर क्या अकारण ही है?
इतिहासकार अब एकमत हैं कि जैनधर्म भारत का प्राचीनतम जीवित धर्म है। प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह की धुरी पर श्रमण - परम्परा का सूत्रपात किया। भगवान महावीर जैनों के चौबीसवें तीर्थकर हुए हैं। उन्होंने अपने पूर्व तीर्थकरों के चिन्तन - मंथन को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित दर्शन का रूप दिया। अनेकान्त और अनाग्रह की भित्ति पर, सब जीवों के प्रति आत्मवत आचरण और संयममय जीवनशैली का रूप लेकर जैन धर्म का अवतरण हुआ।
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र - यह रत्नत्रयी जैन दर्शन का आधार स्तम्भ है। सत्य और असत्य, श्रेय और प्रेम एवं शाश्वत और नश्वर के बीच सही विवेचन करने की दृष्टि और जो सत्य है, श्रेय है, शाश्वत है, इसमें गहन आस्था सम्यक् दर्शन है। इस आस्था के आलोक में अर्जित ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। सम्यक् दर्शन और सम्यक ज्ञान जिस सत्य को अनावृत और उद्भाषित करते हैं उसके अनुरूप मनसा - वाचा - कर्मणा आचरण सम्यक् चारित्र है।
सम्यक् दर्शन और सम्यक ज्ञान परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। ये दोनों. धर्म के सही
अर्हत वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International
71 www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only