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________________ उनकी इस दुर्दशा के पीछे उत्तरदायी कौन है? इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से देना तो फिलहाल संभव नहीं है, पर उसके कतिपय बिन्दुओं की ओर संकेत मात्र किया जा सकता है। साधारणत: यह देखा गया है कि संस्थानों में कुछ प्रबन्धक लोग कुण्डली मारकर बैठ जाते हैं, उन्हें संस्थान की अपेक्षा स्वयं के विकास का ध्यान अधिक रहता है। इससे उनकी अहं तुष्टि भी होती रहती है और साथ ही संयोगवश संस्थान का विकास भी उसकी तृप्ति के साथ जुड़ा रहता है। इससे चमचेबाजी भी पनपने लगती है और यदि उसके साथ स्वार्थ अधिक जुड़ गया तो संस्थान की कीमत पर धड़ाधड़ अनपेक्षित नियुक्तियाँ होने लगती हैं, जो गुणवत्ता से दूर रहकर संस्थान पर बोझ सी बन जाती है। एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान जो कई दशकों तक बहुश्रुत रहा, आज इसी कारण बिखर रहा है। इस प्रसंग को हम यहीं छोड़कर उन कतिपय बिन्दुओं का उल्लेख करना चाहेंगे जिनके कारण आज शोध संस्थानों की प्रगति अवरूद्ध हो गई है - 1. निदेशक और प्रबन्ध समिति के बीच तालमेल न हो पाना। 2. प्रबन्ध समिति का विश्वास निदेशक पर न होना। 3. निदेशक के हर कार्य में अड़गें पैदा करना और उसे स्वतंत्रता न देना। 4. निदेशक द्वारा उठाये गये कदमों की प्रशंसा न कर एकपक्षीय आलोचना करना। निदेशक और पूर्व निदेशक के बीच सामंजस्य न होना। 6. पूर्व निदेशक द्वारा निदेशक के कार्यों की तीखी, एकपक्षीय आलोचना और उसके कार्यों को तोडमरोड़ कर प्रबन्ध समिति के समक्ष प्रस्तुत करना, ताकि निदेशक संस्थान की इतनी प्रगति न कर सके कि पूर्व निदेशक द्वारा की गई प्रगति पर पानी फिर जाये। 7. जातीयता और साम्प्रदायिकता की आड़ में पारस्परिक सहयोग न देना। 8. पूर्व निदेशक का आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप करना या गतिरोध पैदा करना, इस उद्देश्य से कि कहीं उसकी गलतियाँ सामने न आ जायें। समाज और संस्थान के बीच समन्वय स्थापित न होना। 10. पारिवारिक सम्पत्ति के रूप में खड़े संस्थान को सामाजिकता का जामा पहनाकर और समाज से पैसा एकत्रित कर उसी सीमित बनाये रखना। सामन्तवादी प्रवृत्ति से संस्थान पर अंकुश रखना। गुणवत्ता का ध्यान रखे बिना अनपेक्षित नियुक्तियाँ करना और संस्थान पर आर्थिक बोझ डाल देना। 13. प्राकृत और जैन संस्कृति के पाठ्यक्रम के संचालन से दूर रहना। वर्तमान में जैन समाज में शोध संस्थानों के नाम पर लगभग पचास संस्थानों के नाम हमारे सामने हैं जिनमें पाँच - सात संस्थानों को छोड़कर शेष संस्थान जेबी संस्थान के रूप में सिमटकर रह गये हैं। कुछ विद्वानों की जेब में हैं, कुछ पर मुनियों का नाम जुड़ा है, कुछ श्रेष्ठियों की शोभा बढ़ा रहे हैं और कतिपय संस्थान ऐसे हैं जिन पर समाज का एक वर्ग विशेष आधिपत्य जमाये हुए है और कुछ पारिवारिक सम्पत्ति के रूप में अवस्थित हैं। जो संस्थान आज गतिमान हैं, वे हैं - 1. जैन विश्व भारती (संस्थान), लाडनूं 2. पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 3. लालभाई दलपतभाई प्राच्य शोध संस्थान, अहमदाबाद 4. भोगीलाल लहेरचन्द प्राच्य शोध संस्थान, दिल्ली 5. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर 6. अहिंसा शोधपीठ, वैशाली 7. कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली 8. राष्ट्रीय प्राकृत शोध संस्थान, श्रवणबेलगोला। 96. अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526550
Book TitleArhat Vachan 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2001
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size14 MB
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