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जैन विद्या संस्थानों के टूटते बिखरते कंगूरे
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के सचिव डॉ. अनुपम जैन को हम धन्यवाद देना चाहेंगे कि उन्होंने शोध संस्थानों की यथास्थिति को परख और उस पर बहस छेड़ने का संचरण किया। उन्होंने बड़े गंभीर और सटीक मुद्दे उठाये हैं। वे युवा किन्तु अनुभवी हैं। मुझे भी उन्होंने चन्द शब्द लिखने का आग्रह किया। तदनुसार जो भी विचार आये, उन्हें आपके समक्ष संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये विचार मात्र सांकेतिक बिन्दु हैं, इन पर खुले मन से चिन्तन- मन्थन होना चाहिये संभव है इनसे कोई नई ज्योति समाज को मिल सके और शोध संस्थानों की यथार्थ रूपता को हम पहचान सकें।
जैन समाज के सामाजिक इतिहास का पर्यालोचन करने पर यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं रहता कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व खडी हुई संस्थानों के स्थापन और संचालन में जो आत्म समर्पण की भावना थी वह स्वातंत्र्योत्तर काल में दिवंगत सी हो गई है। परमपूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी का नाम हम सब लोगों के लिये सुपरिचित है, जिन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, वर्णी विद्यालय - मोराजी जैसे शिक्षण संस्थान स्थापित किये और समाज में आज दिखाई देने वाले अधिकांश विद्वान् इन संस्थाओं के माध्यम से ही सामाजिक क्षेत्र में आये। इसी तरह पं. गोपालदासजी वरैया, पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं. सुखलालजी संघवी आदि जैसे विद्वान् भी स्मरणीय हैं, जिनकी पुनीत साधना से वीर सेवा मंदिर, पार्श्वनाथ विद्याश्रम जैसे अनेक शिक्षण संस्थान स्थापित हुए और जैन समाज को शिक्षा क्षेत्र में नये आयाम दिये ।
पिछले दशकों में एक यक्ष प्रश्न लोगों के मन में काँध रहा है - जैन पांडित्य की अक्षुण्णता क्यों और कैसे ? इस प्रश्न की अन्तर्तम वेदना ने सारे समाज को झकझोर दिया है। एक ओर जहाँ स्याद्वाद महाविद्यालय और मोराजी जैसे शिक्षण संस्थान मृतक प्रायः हो गये हैं, वहीं पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वर्णी शोध संस्थान जैसी संस्थाएँ अपने संकल्प को पूरा करने में असमर्थ हो रही है। पण्डित परम्परा की एक जो लम्बी श्रृंखला बन चुकी थी, आज वह ध्वस्त सी दिखाई दे रही है, एक एक कर इस लम्बी श्रृंखला से प्राचीन परंपरा के विद्वान् काल कलवित होते जा रहे हैं, जो उसी में से बचे खुचे विद्वान हैं वे अपनी अंतिम सांस ले रहे हैं।
जहाँ पंडित शब्द की सार्थकता का प्रश्न है, वह आज भी तहस नहस हो रही है। गृहस्थ विद्वान् पं. आशाधर के नाम के साथ जो 'पण्डित' शब्द शरीर के साथ त्वचा के समान जुड़ गया है, वह निरर्थक नहीं था। आशाधरजी भले ही मुनि न रहे हों लेकिन उनकी समूची जीवन पद्धति किसी मुनि से कम नहीं थी। इस प्रसंग में कवि जोइन्दु द्वारा लिखित परमात्म प्रकाश का निम्न दोहा याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने का है कि 'पण्डित वही है जो परमात्मा को शरीर से पृथक मानकर केवलज्ञानी हो जाता है।'
प्रतिक्रिया - 2
अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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देहविभिण्णउ जाणमउ जो परमप्पु णिएइ
परमसमाहि परिडियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ '
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पण्डित की यह परिभाषा आज अपने अस्तित्व को तलाश कर रही है। लगता है उसका
संबंध चारित्र से कट गया है। पण्डित की उस परिभाषा को भी हम नहीं भुला पाएँगे जहाँ किसी मजाकिया संस्कृत विद्वान् ने यह कह दिया पण्डितः पण्डितं दृष्ट्वा श्वानवत् गुर्गरायते। यह उस समय भले ही मजाक भरा कथन होगा, पर हम इसे भी अस्वीकार नहीं कर सकते। इस कथन के पीछे उस विद्वान् की आँखों के सामने नाचती हुई विद्वत् परम्परा के चरित्र की पृष्ठभूमि रही होगी।
इन सन्दर्भों में जब हम अपने शोध संस्थानों पर दृष्टिपात करते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि उनके भव्य प्रासादों के आकर्षक कंगूरे टूटकर बिखरकर इधर उधर गिर रहे हैं। उनकी पृष्ठभूमि में पले पुसे उद्देश्यों की धज्जियाँ उड़ रही हैं और सुगन्धित बयार में रूखा सूखापन आ रहा है। संस्थानों की ऐसी स्थिति आ जाने पर स्वाभवत: यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि
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