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________________ जैन साहित्य एवं प्राणावाय परम्परा : सामान्य अर्थ में आयुर्वेद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। 'आयु' व 'वेद'। आयु का अर्थ है जीवन एवं वेद का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् जीवित शरीर के संबंध में समग्र ज्ञान आयुर्वेद से अभिहित किया जाता है। जैन आयुर्वेद साहित्य में चिकित्सा विज्ञान को 'प्राणावाय' कहते हैं। प्राणावाय नामक यह 'पूर्व' आज उपलब्ध नहीं है। आयुर्वेद के आठ अंग बताये गये हैं यथा - कायचिकित्सा, शल्य चिकित्सा, शालाक्य तंत्र, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण तंत्र। चिकित्सा के समस्त विषयों का समावेश इन आठ अंगों में है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में भी औषधि विज्ञान के रस - वीर्य - विपाक - ज्ञान सहित अष्टांग आयर्वेद की शिक्षा का उल्लेख है।। द्वयाश्रय महाकाव्य में बाल रोगों से संबंधित 'शैशुक्रन्द' नामक आयुर्वेदीय ग्रंथ का उल्लेख मिलता है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ईसा पूर्व के आचार्य गुणधर द्वारा रचित अत्यंत प्राचीन जैनागम 'कषायपाहुड' पर आचार्य वीरसेन ने 'जयधवला' नामक अपूर्ण टीका लिखी। इसको उनके ही शिष्य आचार्य जयसेन ने ई. 837 में पूर्ण किया। इस टीका में द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत 'प्राणावाय' पूर्व की व्याख्या करते हुए कहा है कि "प्राणावाय नामक पूर्व दस प्रकार के प्राणों की हानि और वृद्धि का वर्णन करता है। पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्रकार के प्राण हैं। आहारनिषेध आदि कारणों से उत्पन्न हुए कदलीघातमरण के निमित्त से आयु प्राण बल की हानि हो जावे, परन्तु आयु प्राण की वृद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नवीन स्थिति बंध की वृद्धि हुए बिना उत्कर्षण के द्वारा केवल सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति, कर्म का बंधन करने वाले जीवों के आयुप्राण की वृद्धि देखी जाती है। यह प्राणावाय अष्टांग आयुर्वेद का कथन करता है।" कषायपाहुड में आयुर्वेद के आठ अंगों का उल्लेख है।' गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा 366 की कर्नाटकवृत्ति में भी इसी प्रकार से प्राणावाय का अर्थ स्पष्ट किया गया है। 10 श्वेताम्बर परम्परानुसार 'प्राणावाय' का अन्य नाम 'प्राणाय' पूर्व भी है। दष्टिवाद के इस पूर्व की पदसंख्या दिगम्बर मतानुसार 13 करोड़ और श्वेताम्बर मतानुसार 1 करोड़ 56 लाख थी।11 मुनि - आर्यिका, श्रावक - श्राविका रूपी चतुर्विध जैन संघ के लिये चिकित्सा उपादेय है। आयुर्वेद में 'प्राणावाय' का विपुल साहित्य प्राचीनकाल में अवश्य रहा होगा। किन्तु अब केवल दिगम्बर जैनाचार्य उग्रादित्य विरचित कल्याणकारक ग्रन्थ ही इस परम्परा के उपलब्ध साहित्य के रूप में है। 12 जैन दृष्टि से आयुर्वेद की उत्पत्ति के संबंध में पं. व्ही.पी. शास्त्री ने उग्रादित्याचार्य कृत कल्याणकारक के सम्पादकीय में लिखा है - 12 _ 'ग्रंथ के प्रारम्भ में महर्षि ने 'प्राणावाय' शास्त्र की उत्पत्ति के विषय में प्रामाणिक इतिहास लिखा। ग्रंथ के आदि में श्री आदिनाथ स्वामी को नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् प्राणावाय का अवतरण कैसे हुआ और उसकी स्पष्टत: जनसमाज तक परम्परा कैसे प्रचलित हई इसका स्पष्ट रूप से वर्णन ग्रंथ के प्रस्ताव अंश में किया जो इस प्रकार है - 14 श्री ऋषभदेव के समवसरण में भरत चक्रवर्ती आदि भव्यों ने पहुँचकर श्री भगवन्त की सविनय वन्दना की और भगवान से निम्नलिखित प्रकार से पूछने लगे - "ओ स्वामिन! पहिले भोग भूमि के समय मनुष्य कल्पवृक्षों से उत्पन्न अनेक प्रकार के भोगोपभोग सामग्रियों से सुख भोगते थे। यहाँ भी खूब सुख भोगकर तदनन्तर स्वर्ग पहुँचकर वहाँ भी सुख भोगते थे। वहाँ से फिर मनुष्य भव में आकर उसके पुण्यकर्मों को कर अपने - अपने इष्ट स्थानों को प्राप्त करते थे। भगवन! अब भारतवर्ष को कर्मभूमि का रूप मिला है। जो चरम शरीरी हैं व उपवाद जन्म में जन्म लेने वाले हैं उनको अर्हत् वचन, जुलाई 2000 10
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
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