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________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 3, जुलाई 2000, 927 एक परिचय ■ शकुन्तला जैन* जैन आयुर्वेद - सारांश जैन धर्म विश्व का श्रेष्ठ मानवतावादी धर्म एवं वैज्ञानिक दर्शन है। यह विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। विश्व के प्राचीन उपलब्ध लिपिबद्ध धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में भी जैन तीर्थंकर ऋषभदेव एवं अनेक जैन मुनियों का उल्लेख प्राप्त होता है। मोहन जोदड़ों की खुदाई एवं देश के विविध अंचलों में प्राप्त पुरातात्विक अवशेष अत्यन्त प्राचीनकाल में जैन धर्म की उपस्थिति को पुष्ट करते हैं। 2 जैन धर्म की प्राचीनता के साथ- साथ जैन साहित्य भी अत्यन्त प्राचीन है जिसमें हमें धर्म / दर्शन, योग, ज्योतिष, गणित, कला, न्याय, आयुर्वेद आदि विषयों से सम्बन्धित विपुल सामग्री प्राप्त होती है। प्रस्तुत आलेख में जैन आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। जैन धर्म एवं आयुर्वेद :-. जैन धर्म अनादि निधन एवं प्राकृतिक धर्म है तथापि इसके मूल प्रवर्तक तीर्थंकर माने जाते हैं, कालक्रम से ये 24 हुए हैं। जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव व अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए। वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म के सिद्धान्त भगवान महावीर के उपदेशों पर आधारित हैं। परम्परा से प्राप्त ज्ञान को जैन मुनियों ने प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुरूप श्रुत रूप में संरक्षित किया था। जैन मतानुसार भगवान महावीर के बाद तीर्थंकरों की वाणी को उनके शिष्यों - प्रशिष्यों ने बारह अंगों (द्वादशांग ) 3 के रूप में लिपिबद्ध किया । ये द्वादशांग आगम कहलाते हैं, जैन परम्परा में आगम साहित्य प्राचीनतम माना गया है। जो परम्परा से चला आ रहा है उसे 'आगम' कहते हैं। इस द्वादशांग अर्थात् बारह अंगों में अंतिम अंग 'दृष्टिवाद' है। 4 दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं और उन पाँच भेदों में एक भेद पूर्व के अन्तर्गत 'प्राणावाय' (प्राणावाद) है। 'प्राणावाद' में विस्तारपूर्वक अष्टांगायुर्वेद का कथन किया है। आगम प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध है। इन आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकायें आदि व्याख्याएँ मिलतीं हैं, जो प्राकृत में हैं। जैन वाङ्गमय में आयुर्वेद का स्वतंत्र स्थान है। बारह अंगों में अंतिम अंग 'दृष्टिवाद' में 'प्राणावाय' एक 'पूर्व' माना गया है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है। स्थानांगसूत्र की 'वृत्ति' में कहा गया है कि दृष्टिवाद में दर्शनों व नयों का निरूपण किया गया है। समवायांग और नंदीसूत्र में दृष्टिवाद के पाँच भेद बताये गये हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्व, चूलिका । इनमें 'पूर्वों का अधिक महत्व है। बारहवाँ 'पूर्व' प्राणावाय में मनुष्य के आभ्यान्तर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य अर्थात् शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों जैसे यम, नियम, आहार- विहार व औषधियों का विवेचन है। इसमें दैविक, भौतिक, आधिभौतिक, जनपदोध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया गया है। 5 प्राणावाय नामक पूर्व में अष्टांगायुर्वेद का वर्णन है। जैनाचार्यों, विद्वानों, इतिहासवेत्ताओं के अनुसार यही आयुर्वेद का मूल है और इसी के आधार पर परवर्ती आचार्यों ने वैद्यकशास्त्र का निर्माण अथवा आयुर्वेद विषय का प्रतिपादन किया । व्याख्याता - इतिहास, शासकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, रुनिजा (उज्जैन) । शोध छात्रा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
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