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________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर मध्यलोक में सर्वप्रथम द्वीप का नाम क्षेत्र है, इसमें छह खण्ड हैं। इनमें प्रथमतः परिवर्तन होता रहता है। षट्काल परिवर्तन - व्यवहार काल के दो भेद हैं उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिसमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का प्रमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जावे उसे उत्सर्पिणी और जिसमें क्रम - क्रम घटता जावे उसे अवसर्पिणी काल कहते है, इन दोनों के छह-छह भेद होते हैं - अवसर्पिणी काल के भेद - वर्ष - 12, अंक- 1, जनवरी 2000, 7-12 1. सुषभा- सुषमा 3. सुषमा दुःषमा 5. दुःषमा उत्सर्पिणी काल के भी इनसे विपरीत छह भेद होते हैं दुःषमा - दुःषमा दुःषमा- सुषमा - भगवान ऋषभदेव ■ गणिनी ज्ञानमती * 'जम्बूद्वीप' है। इसके दक्षिण भाग भरत मध्यभाग में आर्यखण्ड है, इसमें छह काल 1. 2. दुःषमा 3. 4. सुषमा दुःषमा 5. सुषमा 6. सुषमा- सुषमा अवसर्पिणी काल का प्रथम सुषमा सुषमा काल चार कोडाकोडी सागर का है, दूसरा काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तीसरा काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चौथा काल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पाँचवा काल इक्कीस हजार वर्ष का और छठा काल भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। उत्सर्पिणी काल में भी दुःषमा - दुःषमा काल इक्कीस हजार वर्ष का, इसी तरह पूर्ववत् उल्टा क्रम लगा लेना चाहिये। - 2. सुषमा 4. दुःषमा- सुषमा 6. दुःषमा - दुःषमा अथवा अति दुःषमा इस प्रकार ये दोनों काल दश दश कोड़ाकोड़ी सागर के होने से बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक 'कल्पकाल' माना गया है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालों में भोगभूमि की व्यवस्था रहती है तथा चतुर्थ, पंचम और छठे कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था हो जाती है। भोगभूमि व्यवस्था भोगभूमि में दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है मद्यांग ( पानांग), वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग। ये वृक्ष अपने अपने नामों के अनुसार ही फल प्रदान करते रहते हैं । मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष अमृत के समान अनेक प्रकार के पेय रस देते हैं। वादित्रांग वृक्ष दुंदुभि आदि बाजे देते हैं। भूषणांग कल्पवृक्ष मुकुट, हार आदि देते हैं। मालांग कल्पवृक्ष माला आदि सुगंधित पुष्प देते हैं। दीपांग कल्पवृक्ष मणिमय दीपकों को देते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष सदा प्रकाश फैलाते रहते हैं। गृहांग वृक्ष ऊँचे ऊँचे महल देते हैं। भोजनांग वृक्ष अमृत सदृश भोजन सामग्री देते हैं। भाजनांग वृक्ष थाली, गिलास आदि पात्र देते हैं और वस्त्रांग वृक्ष अनेक * जैन श्रमणसंघ की वरिष्ठतम आर्यिका सम्प्रति दिल्ली में साधनारत । सामान्य सम्पर्क शोध संस्थान, जम्बूद्वीप हस्तिनापुर 250404 (मेरठ) - - दि. जैन त्रिलोक
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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