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यह नवग्रह शान्ति विधान कहा गया है। महामंत्र में ध्वनि विज्ञान -
इस महामंत्र में स्वर व्यंजन तथा तदनुसार कुछ ध्वनियां भी विद्यमान हैं। ध्वनि विज्ञान के आधार पर वर्ग का आद्य अक्षर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिये समस्त मंत्रों की मूलभूत मातृकाएं ध्वनि रूप में इस महामंत्र के अन्तर्गत इस प्रकार विद्यमान
अ आ इ ई उ उ ऋ ऋ. ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् न्, ट् ठ् ड् ढ् ण, त् थ् द् ध् न्, प् फ् ब् भ् म् य् र्, ल् व् श् ष् स् ह। इन ध्वनि रूप मातृकाओं के विषय में आचार्य जयसेन ने प्रतिपादन किया है
अकारादि क्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्तास्त मातकाः।
सृष्टिन्यास स्थितिन्यास - संहतिन्यासतस्त्रिद्या।। 11 सारांश - अकार से लेकर क्षकार (क् + ए = क्ष् + अ) पर्यन्त मातृका वर्ण कहे जाते हैं। इनका क्रम तीन प्रकार का होता है 1. सृष्टि कर्म, 2. स्थिति क्रम, 3. संहार क्रम। णमोकार मंत्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निविष्ट है। इसी कारण यह महामंत्र आत्मकल्याण के साथ लौकिक अभ्यदयों को भी देने वाला है। संहारक्रम ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों के विनाश को अभिव्यक्त करता है। सृष्टि क्रम और स्थिति क्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अम्युदयों की प्राप्ति में सहायक होता है।'
बीजाक्षरों की निष्पत्ति भी इसी महामंत्र से होती है, इसी कारण इस मूल मंत्र से हजारों मंत्रों का जन्म होता है। इसके विषय में आ. जयसेन का मत -
हलो बीजानि चोक्तानि, स्वरा: शक्तय ईरिताः। 12 सारांश - ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजनवर्ण वीन संज्ञक कहे जाते हैं और अकारादि स्वर शक्तिरूप कहे जाते हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। इसलिये इस महामंत्र में संपूर्ण ध्वनियों की शक्तियां ध्वनित होती है। इसमें श्रुतज्ञान के समस्त अक्षरों का समावेश हो जाता है अत: यह महामंत्र द्वादशांग श्रुतज्ञान का सार है। इसमें अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रहवाद, अध्यात्मवाद, तत्व, पदार्थ, द्रव्य, प्रमाण, नय, मुक्ति और मुक्तिमार्ग आदि संपूर्ण लोक कल्याणकारी सिद्धांत ध्वनित होते हैं। महामंत्र का संक्षिप्तरूप और उसकी सिद्धि -
यदि कोई संक्षिप्त रूचि वाला व्यक्ति महामंत्र को एक अक्षर में कहने की इच्छा व्यक्त करता है तो आचार्यों ने महामंत्र का लघरूप शास्त्रों में दर्शाया है। 35 अक्षरों वाले मंत्र को एकाक्षर मंत्र बनाने का चमत्कार -
अरहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मुणिणो।
पढमक्खरणिप्पण्णो, ओंकारों पंच परमेष्ठी।। 13 भावसौन्दर्य - 'नामैकदेशेन नाम मात्र ग्रहणम्' अर्थात् नाम के एक देश से भी संपूर्ण नाम का ग्रहण या व्यवहार होता है इस नीति के अनुसार अरहन्त का अ, अशरीर (सिद्ध) का अ, इस प्रकार अ + अ = आ, 'अक: सवर्णे दीर्घः' इस सूत्र से एक दीर्घ आ हो गया। आचार्य का आ + आ (पूर्वका) यहां पर भी पूर्व सूत्र से आ + आ = आ हो गया। पश्चात् उपाध्याय का 'उ' आद्गुण: इस सूत्र से आ + उ = ओ
अर्हत् वचन, जनवरी 2000