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________________ में तो एक मन्दिर देवगढ़ की भांति पुलिस चौकी है। जबकि जैनियों ने किसी जैनेतर मंदिर अथवा मठ को अपने कब्जे में किया हो ऐसा इतिहास नहीं है। जैन तीर्थों की महत्ता अपनी मौलिकता के साथ जैन साहित्य और सिद्धान्तों का समर्थक करती है जो ठोस प्रमाणों पर आधारित है। यही सिद्ध करता है कि ऋग्वेद श्रमण ऋभदेव प्रभावित एक कृति है तथा भारत का मूल, सर्वप्राचीन धर्म अहिंसा समर्थक त्याग प्रधान धर्म था जिसका प्रभाव समूची मानवता पर दिखता है। धाराशिव की गुफा और खारवेल गुफाओं के जैन साक्ष्य मिटाने का कुचक्री प्रयास चालू है। किन्तु सबको चेतावनी देती सुमेरियन तथा मोहनजोदड़ों पूर्व सभ्यता से मिल रहे प्रतीकों को सम्बल देती हुई जे. पाल. गेटी की मशहूर 'ग्रीक कुरोज' 52 की अत्यंत रोचक सौम्य प्रतिमा 'आर्केयालाजी' पत्रिका के मई-जून 1994 अंक में प्रकाशित चित्र रूप (देकें पृ. 28) यहाँ प्रस्तुत है जो ग्रीक से प्राप्त अत्यन्त प्राचीन धरोहर मूर्ति के रूप में संग्रहालय में सुरक्षित है। इसे करोज (क्यरियोसिटी अर्थात् जिज्ञासा) तो कहा है किन्तु इसका अद्भुत साम्य ऋषभदेव की प्रतिमा से देखा जा सकता है। कायोत्सर्गी मुद्रा में खड़ी यह संगमरमर की मूर्ति न केवल दिगम्बर (नग्न) पुरुष को दर्शाती है बल्कि ऋषभदेव की जैन मूर्तियों की तरह लम्बे केशों के बावजूद उस मूर्ति के चेहरे और गुप्तांग पर बालपन की झलक है। चेहरे पर आन्तरिक निर्दोष प्रसन्नता है जो किसी भी तरह के राग को प्रदर्शित नहीं करते। पलकें झकी हई, नासाग्र दृष्टि है। पुष्य वृक्ष और कंधे प्रौढ़ता के प्रतीक हैं। चरणों की स्थिति चार अंगुल का अंतर आगे पीछे दर्शाती हैं जो कदाचित संतुलन हेतु आवश्यक माना गया। माथे पर बालों की छल्लियाँ बाहुबली, गोमटेश जैसी ही हैं। लटे गुंथी सी सधी हैं जो किसी वीतरागी तपस्वी की द्योतक हैं। यह मर्ति अति प्राचीन मानी जा रही है और ऋषभ की ओर संकेत देती है। मै निर्णय नहीं दे रही. मात्र साम्य की चर्चा कर रही हैं। ग्रीक में इसे रेषभ (एक देव) भी पुकारा गया है। सारे साक्ष्य जैन धर्म की प्राचीनता का डंका बजाते हैं और मानव को अहिंसा और विश्व शांति की ओर प्रेरित करते हैं। सन्दर्भ स्थल - 1. द वर्ल्ड बुक एनसाइक्लोपीडिया ; वर्ल्ड बुक इंक, 1990 2. आचार्य उमास्वामी, तत्वार्थ सूत्र : वर्णी ग्रंथमाला, वाराणसी, 1949 3. यतिवृषभाचार्य, तिलोयपण्णत्ती, जीवराज जैन ग्रंथमाला, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर 4. क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग 1, भारतीय ज्ञानपीठ, 1996 5. आचार्य जिनसेन, "आदि पुराण', संपादक, अनुवादक, डॉ. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, छठवां प्रकाशन, तृतीय पर्व, पृष्ठ संख्या 59, 1998 6. वेद व्यासं रचित "ऋग्वेद", महर्षि दयानन्द सरस्वती संस्थान, नई दिल्ली - 5, भाग 1, पृष्ठ 1/1 7. आचार्य शरद कुमार साधक, ऋषभ सौरभ स्मारिका, ऋषभदेव प्रतिष्ठान, मयूर विहार, नई दिल्ली, 1998 8. वेद व्यास रचित ऋग्वेद, महर्षि दयानन्द सरस्वती संस्थान, नई दिल्ली - 5, भाग 1, पृ. 83/2, 251/9, 316/1, 382/1, 472/8, 478/2, 520/2, भाग - 2, 266/8, 366/4 9. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, पृ. 65, 1998 10. वेद व्यास, ऋग्वेद, महर्षि दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली -5, भाग 1, पृ. 35420/22 11. वेद व्यास, ऋग्वेद, महर्षि दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली - 5, भाग 1, पृ. 35420/22 12. वही - भाग 2, पृ. 28, 29, 30, 519 13. वही - भाग 1, पृ. 114/5, 6, 7, 8, 482, भाग 2, पृ. 55 14. वही - भाग 1, पृ. 114/8, 9, 216/90/21, 216/41, 224/6, 251/8, 251/5/22, 470/4, 481/5, भाग 2 पृ. 244/6 15. वही - भाग 1, पृ. 251/3, 284/10/17, 440/2, 482/5/8, 511/5, भाग 2, पृ. 21/22, 474/7 अर्हत् वचन, जनवरी 2000 26
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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