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अर्हत् व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 12, अंक- 1, जनवरी 2000, 21-28
ऋग्वेद मूलतः श्रमण ऋषभदेव प्रभावित कृति है !
■ स्नेहरानी जैन *
विश्व के विद्वानों, इतिहासकारों एवं पुरातात्विकों के मतानुसार इस धरती पर ईसा से लगभग 5000-3000 वर्ष पूर्व के काल में सभ्यता अत्यन्त उन्नति पर थी । मिस्र देश के पिरामिड और ममी, स्फिंक्स, चीन की ममी, ग्रीक के अवशेष, बेबीलोन, भारत के वेद, मोहनजोदड़ो हडप्पा के अवशेष, तक्षशिला, नालन्दा आदि कुछ ऐसे ही प्रतीक हैं जो अपनी कला, संस्कृति, सभ्यता और सामाजिक चेतना के चरम बिन्दु से लगते हैं।
भूविशेषज्ञों के मतानुसार अनेकों बार लंबे काल में हमारी धरती पर प्रमुख बदलाव ऐसे आये हैं जिन्होंने धरती का भूगोल ही बदल दिया। जो धरती लाखों वर्ष पूर्व इकट्ठी थल रूप थी तथा जल से घिरी थी, पंजिया कहलाती थी । वही धरती लाखों वर्षों के अन्तराल में धीरे - धीरे अब 6 महाद्वीपों और अनेकानेक द्वीपों में बदल चुकी है। जैन आगमों में वर्णित थालीनुमा धरती से यह जानकारी बहुत मेल खाती है। 2. 3 उसी के अनुसार भोगभूमि काल में हरे भरे जंगल फल-फूल, वनस्पति और पवन, जल, जीव आदि इतने अनुकूल थे कि सभी प्राणियों का जीवन सर्व सुरक्षित और सुखमय था । 1 उस थालीनुमा भू-भाग पर बड़े- बड़े हाथी, डायनासोर घूमते विचरते अन्य पशुओं / प्राणियों के साथ जीवन यापन करते थे। मनुष्य निर्दोष, निर्विकल्प, संतुष्ट और सुखी सा विचरण करता था । प्रकृति उन्हें भरपूर देती थी। वह जैन आगमों के अनुसार कल्पवृक्षों वाला (भोगभूमि) युग था ।
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फिर भूगर्भीय परिवर्तनों ने भूकम्प, ज्वालामुखी और नैसर्गिक प्रकोपों के संकेत देने प्रारम्भ कर दिये। इसे प्रलय पुकारा गया। बड़े- बड़े डायनासोर और हाथी जीवित ही धरती में दफन हो गये जिनके कंकाल आज भी जहाँ तहाँ मिलते हैं। मनुष्य को जलवायु और वनस्पतियाँ समस्यात्मक लगने लगीं। मनुष्य ने अपने नेता से जीवन की समुचित राह चाही । जैन मान्यतानुसार वह नेतृत्व ऋषभदेव का ही था जिन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प को जन्म दिया। यह सब इतना प्राचीन है कि उसके प्रमाण आज मात्र पौराणिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आधार पर ही दिये जा सकते हैं तथा जिन्हें किसी भी प्रकार से खंडित भी नहीं किया जा सकता है।
मंडला - भंडारा की गुफाओं तथा भोपाल की भीमबेठिका गुफाओं में 8 से 10 हजार वर्ष पूर्व की आदिम मानव सभ्यता के रेखा चित्र यही दर्शाते हैं कि तब भी मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों में वैसा ही लीन था जैसा कि आज की आदिम जातियाँ हैं । सम्पन्न समाज परिष्कृत था जिसकी अपनी बोली थी, लिपि थी। ऋषियों, तपस्वियों के पास ज्ञान था और जीवन के तरीके थे। विश्व के रहस्यों को जानने की तीव्र उत्कंठा थी। उसके बाद मानव ने किस प्रकार भाषा और लिपि को बदला, भाषाविदों के लिये यह जानने की बात अवश्य है। स्वर को संकेत देकर लिपि ने विश्व के भिन्न-भिन्न कोनों में भिन्न- भिन्न रूप पाये। समय के साथ वे रूप भी बदलते गये और भाषायें और लिपियाँ भी बदलती गईं। विश्व के प्राचीनतम साहित्य के रूप में 'पेपीरस' और 'ऋग्वेद' को ही जाना एवं माना जाता है। भारतीय विद्वानों के मतानुसार ऋग्वेद का जन्म लगभग 10,000 ईसा पूर्व वर्ष में हुआ जिसमें श्रुतज्ञान की अवस्थिति मौखिक ही प्रमुख थी । अर्थात् उसके पृष्ठों में तत्कालीन भाषा का दिग्दर्शन हमें आज भी मिलता हैं। उस समय 18 महाभाषाएँ और 700 लघु भाषाएँ प्रचलित थीं। वह ग्रंथ सामान्य और जन जन में बोली जाने वाली तब
* पूर्व प्रवाचक भेषज विज्ञान, डॉ. हरिसिंह गौर वि.वि., सागर । निवास- 'छवि', नेहा नगर, मकरोनिया, सागर - 470002 ( म.प्र.)