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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 11, अंक - 4, अक्टूबर 99, 45 - 48 जैन धर्म और पर्यावरण
- मालती जैन*
मनुष्य ने जब इस धरती पर आंखे खोलीं, तब उसके नीचे मुलायम घास का बिछौना था, ऊपर चमकीले तारों से टँका नीला वितान। मंद सुगंधित बयार ने उसे थपकियाँ दी और पक्षियों ने उसे अपनी मीठी आवाज में लोरियाँ सुनाईं। बाग - बगीचों में मुस्कराते फूलों ने उसका स्वागत किया, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं ने उसे पौरुष और दृढ़ता का संदेश दिया और बलखाती इठलाती नदियों की गति में उसे "चरैवेति चरैवेति", "चलना जीवन की कहानी, रूकना मौत की निशानी" की अनुगूंज सुनाई दी। होश संभालते ही उसे प्रतीत हुआ कि प्रकृति उसकी अभिन्न जीवन सहचरी है, जीवनदात्री है, शिक्षिका है। पुरुष की पूर्णता प्रकृति में निहित है। मानव ने प्रकृति से अपनी आत्मीयता स्थापित की और प्रतिदान में प्रकृति ने अपनी समस्त सम्पदा उसे सौंप दी। मानव सभ्यता का यह स्वर्णिम काल था।
समय ने करवट ली। प्रकृति की गोद में पले निश्छल हृदय पुरुष को स्वार्थपरता ने आ घेरा। उसकी आवश्यकतायें महत्वाकांक्षाओं में परिवर्तित हुई। प्रकृति पर एकाधिकार करने की कुत्सित भावना में अंधे हो वह चीख उठा -
यह जलन नहीं सह सकता मैं, चाहिए मुझे मेरा ममत्व ।।
इस पंचभूत की रचना में, मैं रमण करूँ बन एक तत्व॥' यांत्रिक सभ्यता के विकास की अंधी दौड़ में पुरुष ने प्रकृति का भरपूर दोहन किया, बिना यह सोचे समझे कि उसके हाथों प्रकृति पर किए जाने वाले ये अत्याचार एक दिन उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन जायेंगे। परिणाम सामने है - आज समस्त विश्व का प्रदूषित पर्यावरण मानव जाति के अस्तित्व के समक्ष एक ज्वलंत प्रश्नचिन्ह बनकर आ खडा हआ है। 'मिट्टी, पानी और बयार - जिन्दा रहने के ये आधार' आज मानव जाति के विनाश के साधन बन गये हैं। पर्यावरण आज का सर्वाधिक चर्चित विषय है। पर्यावरण पर राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का आयोजन किया जा रहा है। 'अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस', 'पृथ्वी दिवस' जैसे दिवस मनाये जा रहे हैं। वैज्ञानिक चितिंत हैं, राष्ट्राध्यक्ष व्यग्र हैं - प्रदूषित पर्यावरण से मानव जाति की रक्षा कैसे
हो?
चिन्ता के इस घने कहासे में हमें आलोक की एक प्रखर किरण दृष्टिगत हो रही है जैन धर्म के सिद्धान्तों में, जिनकी आधारशिला है - 'जिओ और जीने दो'। इस सूत्रवाक्य को पर्यावरण रक्षा के नारे के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है -
सव्वे पाणा पिआउणा। सुहसाया दुक्खपटिकूला। अप्पियवधो जीवितं पियं। सव्वेसिं जीवेउ कामा, नाय वाएज्ज कन्वण ॥2
"विश्व के समस्त प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सबको सुख प्रिय है, दुख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है इसलिए किसी का वध मत करो।" अहिंसा की इस विचारधारा की पृष्ठभूमि में एक सिद्धांत है -
"परस्परोपग्रहो जीवानाम्"3 * अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, चित्रगुप्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मैनपुरी (उ.प्र.)