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दूसरे जीवों की कब्रगाह बनाना अनैसर्गिक, अन्यायपूर्ण है। समता और न्याय की पुकार लगाने वाले मानव को पशु-पक्षियों और कीड़े मकोडों के प्रति सहिष्णु और उदार होना अनिवार्य है।
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पर्यावरणीय दृष्टि आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के साथ विविध प्रकार के विषाक्त एवं दूषित रसायनों एवं दूषित गैसों के कारण वायुमंडल विकृत हुआ है जिसके कारण प्रकृति का स्वचालित संतुलन बनाये रखने की शक्ति एवं व्यवस्था भंग हुई है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, असामयिक वृष्टि, अत्यधिक गर्मी - सर्दी एवं विषाक्त गैसों के दुष्प्रभाव से न केवल प्रकृति बल्कि पशु-पक्षी एवं मानवजीवन भी आहत हुआ है जिसके आसन्न संकट के कारण सभी भयभीत भी हैं। पर्यावरण की शुद्धता का आन्दोलन इसी की परिणति है। वन्य जीवों एवं मनुष्य के भोजन के स्वरूप का सम्बन्ध पर्यावरण की शुद्धता से निकट रूप से जुड़ा हुआ है। मनुष्य के अन्नाहारी - शाकाहारी रहने पर पंचभूत तत्त्वों के साधनों का समुचित दोहन होता है और उससे जुड़ी प्रकृति की व्यवस्था में संतुलन बना रहता है। मांसाहार एवं मनोरंजन हेतु जीवधारियों की हिंसा होने पर प्रकृति उन जीवधारियों की सेवाओं से वंचित हो जाती है, साथ ही जीवों के करुण क्रन्दन से पर्यावरण भी अदृश्य रूप से शोक एवं आर्तपूर्ण हो जाता है, जो अंततः मनुष्य के चिंतन एवं आचार को दूषित करता है। अधोगति की ओर ले जाने वाला यह दुष्चक्र तब तक चलता है जब तक कि पुनरुत्थान हेतु नवीन आधार की संरचना तैयार नहीं हो जाती । इस दृष्टि से अन्नाहार एवं शाकाहार श्रेष्ठ आहार है।
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आध्यात्मिक दृष्टि आध्यात्मिक दृष्टि चेतन जगत को जड़ जगत से अलग करती है। इसका लक्ष्य अपने में, अपने द्वारा अपने से सुख आनन्द पाना है जो प्रत्येक जीवात्मा की स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन पर आधारित है। इस लक्ष्य का साधक व्यक्ति प्रकृति की व्यवस्था में न्यूनतम हस्तक्षेप या अहस्तक्षेप की नीति के अनुरूप अपना आचार आहार तय करता है। अन्न या बीज में यद्यपि जीव धारण की क्षमता होती है फिर भी वह निर्जीव ही होता है। अतः सात्विक - सदाचारी व्यक्ति का शुद्ध अहिंसक आहार अन्नाहार ही होता है फिर शाक-सब्जी एवं फलों का नम्बर आता है जिसमें अति न्यून हिंसा होती है। आवश्यकता की स्थिति में वह इनको मर्यादानुसार ग्रहण करता है। भोजन का समय एवं अन्तराल की दृष्टि से दिन का भोजन प्रकृति के अनुकूल होता है जबकि रात्रि भोजन तामसिकता उत्पन्न करता है। समग्र दृष्टि से अण्डा मांसाहार, अनिष्ट - अनुपसेव्य एवं नशाकारक वस्तुएँ मानवीय शरीर रचना, स्वभाव, स्वास्थ्य, जीवन लक्ष्य रूप समता और न्याय की दृष्टि से प्रतिकूल, अहितकारी होने से त्याज्य एवं वर्जित है ।
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प्राप्त - 16.10.95
अर्हत् वचन, अक्टूबर 99
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पश्चिम के देशों ने इस तथ्य को समझा है। यही कारण है कि पश्चिम में शाकाहार का प्रचलन द्रुतगति से बढ़ रहा है जबकि हम भारतवासी पश्चिमी जगत की विकृतियों से प्रेरित होकर शाकाहार छोड़कर मांसाहारी हो रहे हैं।
उक्त सभी दृष्टियों से विचार करने पर यह सहज रूप से स्पष्ट होता है कि न केवल उच्च आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त करने, बल्कि प्राणियों के मध्य परस्पर - उपकार, समता का जीवन जीने एवं शोषण से मुक्ति का अधिकार प्राप्त करना है तो प्रकृति में अहस्तक्षेप की नीति की दृष्टि से अन्नाहार एवं शाकाहार ही पूर्ण सरल, सात्विक एवं सुविधाजनक है। इसलिये धार्मिक- सामाजिक रूढ़ि परम्परा एवं आहार से जुड़ी प्राणी हिंसा को त्यागकर अपने समान सभी प्राणियों को जीने का अवसर प्रदान करें, यही श्रेयस्कर है।
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