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देते हैं।
कर दुरुपयोग करता है। आत्मवान लाभ होने पर प्रसन्न नहीं होता और ★ कुछ पुरुष न धर्म का त्याग करते हैं और न वेश का त्याग करते हैं। अनात्मवान लाभ होने पर सफलता का व्याख्यान करता है। आत्मवान
सैध्दांतिक विषयों के साथ व्यावहारिक विषयों का विश्लेषण भी प्रस्तुत पूजा और सत्कार पा उससे प्रेरणा लेता है। अनात्मवान पूजा और सत्कार अध्ययन में किया गया है। वह इस प्रकार है
से अपने अहं को पोषण करता है। ★ कुछ पुरुष आम्रप्रलंब कोरक की तरह होते हैं जो सेवा करनेवाले का सप्तम स्थान- प्रस्तुत अध्ययन में सात संख्या से संबध्द विषयों का उचित समय में उचित उपकार करते हैं।
समाकलन किया गया है। साधना व्यक्तिगत होती है पर जैन शासन में कुछ पुरुष तालप्रलंब कोरक की तरह होते हैं जो दीर्धकाल से सेवा उसे सामुदायिक रुप दिया गया है। जैन तीर्थंकरों ने साधु संघ की व्यवस्था करनेवाले का अत्यंत कठिनाई से उचित उपकार करते हैं। दी। संघ में अनेक गण होते हैं। साधक गण में रहते हुए उसकी व्यवस्था कुछ पुरुष वल्लीप्रलंब कोरक की तरह सेवा करनेवाले का शीघ्रता का पालन निष्ठापूर्वक करता है। पर अपेक्षा होने पर गण परिवर्तन के लिए से उपकार कर देते हैं।
भी स्वतंत्र होता है। प्रस्तुत अध्ययन में गण परिवर्तन के सात हेतुओं का * कुछ पुरुष मेषविषाण कोरक की तरह होते हैं जो केवल मधुरवाणी उल्लेख किया गया है। विषयों के वैविध्य के कारण इस अध्ययन में भय से प्रसन्न रखना चाहते हैं, पर उपकार नहीं करते हैं।
एवं दंड के प्रकारों का भी शासकीय पध्दति अथवा दंडविधि की ओर पंचम स्थान - प्रस्तुत अध्ययन में पांच की संख्या से संबध्द विषयों संकेत करती है। दंडनीति के विकास से यह तथ्य उजागर होता है कि का संकलन है। तात्त्विक विषयों के साथ-साथ ज्योतिष, भूगोल, योग व्यक्ति का आत्मानुशासन जितना विकसित होता है दंड व्यवस्था उतनी आदि की सरस शैली में प्रस्तुति की गई है। शुध्दि के पांच स्थानों का ही अकिंचित्कर होती है और आत्मानुशासन जितना कम है, दंड व्यवस्था जिक्र करते हुए कहा गया- मिट्टी शुध्दि का साधन है। इससे बर्तन आदि का प्रयोग उतना ही अधिक होता है। मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारने में साफ किए जाते हैं। पानी से वस्त्र, पात्र आदि की सफाई की जाती है। काव्य और संगीत का भी विशेष योगदान रहा है। स्वर मंडल का विशद अग्नि सोना, चांदी आदि को शुध्द करने का साधन है। मंत्र वायुमंडल को विवेचन इस द्रष्टि से मननीय है। प्रस्तुत अध्ययन में स्वर मंडल का शुध्द बनाता है। ब्रह्मचर्य से आत्मा की शुध्दि होती है।
विस्तृत वर्णन है। मन की दो अवस्थाएं हैं - स्थिर और चंचल। जल जब स्थिर और अष्टम स्थान-आठ की संख्या से संबध्द इस अध्ययन में कर्मशास्त्र, शांत होता है तब उसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट देखा जा सकता है। वात, लोकस्थिति, जीव विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, भूगोल, इतिहास आदि विभिन्न पित्त और कफ के सम (शांत) रहने से शरीर स्वस्थ रहता है। मन की विषयों के संबंध में विश्लेषण किया गया है। मानवीय स्वभाव की दुर्बलता स्थिरता से ही अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है। चंचलता उपलब्धि में का एक हेतु है माया । जब व्यक्ति माया का समाचरण कर उसे अपना बाधक है। अभूतपूर्व द्रश्यों को देखने से मन क्षुब्ध हो जाता है अथवा चातुर्य मान लेता है तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। जिसके मन में कुतूहलक से मर जाता है तो उपलब्ध अवधिज्ञान भी वापस चला जता है। पाप के प्रति ग्लानि होती है, धर्म के प्रति आस्था होती है, कर्म सिध्दांत में यदि मन शांत रहा है तो अवधिज्ञान टिका रहता है।
विश्वास होता है वह माया कर प्रसन्न नहीं होता । माया शल्य की तरह चुमन प्रस्तुत अध्ययन में आचार, दर्शन आदि के साथ गणित, इतिहास पैदा करती है। व्यवहार में भी उसका फल अच्छा नहीं होता है। परस्पर और परंपरा के विषयों का भी समावेश किया गया है।
का संबंध टूट जाता है। अहं वस्तु से नहीं, भावना से जागता है। अहं का बळस्थान - छह की संख्या से संबध्द विषयों का संकलन प्रस्तुत दूसरा नाम है मद । प्रस्तुत अध्ययन में आठ मद स्थानों का विवेचन है। अध्ययन में किया गया है। जैन दर्शन यथार्थवादी दर्शन है। इन्द्रियों से उच्च जाति और नीच जाति का विभाजन मद का हेतु है। कुल का भी मद होनेवाली सुखानुभूति यथार्थ है। इंद्रिय सुख सुख नहीं, दुःख है। यह होता है। बल का मद होने पर व्यक्ति सोचता है - मैं कितना शक्तिशाली ऐकांतिक द्रष्टिकोण है। संतुलित द्रष्टि है कि इन्द्रियों से सुख भी मिलता हूँ। इसी प्रकार रुप, तप, ज्ञान और ऐश्वर्य का मद मनुष्य को भटकाता है। है और दुःख की अनुभूति भी होती है। इन्द्रिय सुख भले आध्यात्मिक माया और मद दोनों मानसिक विकार हैं। माया की चिकित्सा ऋजुता और सुख की तुलना में नगण्य हो, पर वह यथार्थ से परे नहीं है। प्रस्तुत मद की चिकित्सा मृदुता के द्वारा संभव है। जैन धर्म में अनेकांत का प्रयोग अध्ययन में सुख और दुःख के छह-छह स्थान बतलाए गए हैं। केवल तत्त्ववाद के क्षेत्र में ही नहीं, आचार और व्यवस्था के क्षेत्र में भी
आत्मवान ज्ञान के आलोक में अपने जीवन पथ को प्रशस्त करता किया गया है। साधक को एकाकी साधना की स्वीकृति तब ही दी जा है। विनीत और अनाग्रही हो जीवन को सरल बनाता है। अनात्मवान ज्ञान सकती है जब वह विशिष्ट योग्यता संपन्न हो। योग्यता के आठ मानक से अपने आपको मारी भारी बनाता है। विवाद और आग्रह का आश्रय ले बतलाए गए हैं - श्रध्दा, सत्य, मेघा, बहुश्रुतत्व, शक्ति, अकलहत्व, अपने अहं को अधिक बढ़ाता है। आत्मवान तपः साधना से आत्मा को धृति, वीर्य संपन्नता। उज्ज्वल बनाता है। अनात्मवान उसी तपलब्धि (योगजशक्ति) को प्राप्त नवम स्थान - प्रस्तुत अध्ययन ऐतिहासिक द्रष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
‘ગુરુદષ્ટિએ ગ્રંથ-ભાવન’ વિશેષાંક - પ્રબુદ્ધ જીતુન (એપ્રિલ - ૨૦૧૮)