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________________ ૧૨૦ त०४२-३३ ધર્મો મેં ભિન્નતા. अशुभ कर्मों का बन्ध होगा, खाये हुए अपथ्य भोजन के समान उसका तुम्हें दुःखमय फल मिलेगा, तुम्हें बुरी गति में जाना पडेगा। अगर तुम पुण्य करोगे तो तुम्हें शुभ कमी का ( ११ या न्या.) बन्ध होगा, खाये हुए पथ्य भोजन के समान उससे तुम्हारा वर्षा का शुद्ध जल दो तरह का नहीं होता, किन्तु पात्रो हित होगा आदि । एक धर्म लोगों को ईश्वर-कर्तृत्ववादी बनाकर के भेद से उसमें भेद हो जाता है। इसीप्रकार धर्म दो जो काम कराना चाहता है दूसरा धर्म लोगोंके ईश्वर-कततरहका नहीं होता किन्तु पात्रों के भेदसे या, जैनशाखों के खका विरोधी बनाकर वही काम कराना चाहता है। यहां शब्दोमें, द्रव्य क्षेत्र काल भाबके मैदसे उसमे भेद होता है धर्म में क्या भिन्नता है ? भिन्नता उसके साधनों में है। दृष्य क्षेत्र काल भावका भेद, विरोध का कारण नहीं होता, प.न्तु भिन्नता होने से विरोध होना चाहिये, यह नहीं कहा इतना ही नहीं बल्कि इसप्रकार की द्विविधताको हम दो धर्म । बालक इसप्रकार का द्विावधताका हम दा धम जा सकता। विरोध वहां होता है जहां दोनोंका उद्देश्य एक भी नहीं कह सकते। वे एकही धर्मके अनेक रूप है, दुनिया दसरे का विघातक हो परन्तु यहां दोनो का उद्देश्य एक ही में अनेक धर्म है-जैन, बौद्ध, वैदिक, ईसाई, इस्लाम आदि। है। इसलिये हम इन्हें विरोधी धर्म नहीं कह सकते । उनमें परन्तु जिस प्रकार इन धर्मों के संप्रदाय' है उस प्रकार हिंसा से अगर हम ईश्वर-कर्तत्ववाद को वैज्ञानिक दृष्टि से असत्य धर्म, असत्यधर्म, अक्रोधधर्म, विनयधर्म, आदिके सम्प्रदाय नहीं मानले तो भी वह अधर्म नहीं कहा जा सकता। जिन लोगा हैं, मैं जन हूँ, तू बौद्ध है इस प्रकार के धर्माभिमान से लोग का बुद्धि की अपेक्षा मानसिक विकास अधिक हुआ है अथात् लडे हैं, परन्तु मैं अहिंसाधर्मी है, तु सत्यधर्मी है इस प्रकार जो भावुक है उनके लिये ईश्वर-कर्तृत्ववाद अधिक उपयोगी है के धर्माभिमानसे कोई नहीं लडा, हर एक धर्म अपने को व यह सोचते है कि ईश्वरके भरोसे सब छोड देने से हम न्यूनाधिक रूपमें अहिंसा, सत्य आदिका' पोषक कहता है। निश्चित हो जाते है, हममें कतृत्वका अहंकार पैदा नहीं होता इससे मालूम होता है कि अहिंसा, • त्य' आदि असली धर्म पुण्य--पापका विचार रहता है जिनकी बुद्धि अधिक विकसित हैं और इनमें विरोध नहीं है। विरोध है उसके विविध रूपोंमें है, वे तर्कसिद्ध न होने से ईश्वर को नहीं मानते वे सोचते अर्थात् सम्प्रदायों में । कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म सुख है कि ईश्वर को कती न माननेसे हम स्वावलम्बी बनते ह-हम के लिये है और विविध सम्प्रदाय धर्म के लिये है । सम्प्रदाय ईश्वरको प्रसन्न करने की कोशिश करनेकी अपेक्षा कर्तव्यको पूर्ण स्वयं परिपूर्ण धर्म, नहीं है-वे, अहिंसा आदि धोके लिये हे करनेका प्रयत्न करते हैं। हमारे पापों को माफ करनेवाला नहीं इसलिये यह कहना बिलकुल ठीक है कि माम, भिन्नता या है. इस विचार से हमें पापसे भय पैदा होता है। जिस धर्मन विरुद्धता नहीं हो सकती। हमने धर्म के लिये उत्पन्न होने ईश्वरको माना है उसने भी इसीलिये माना है कि मनुष्य वाले या उसके एक रूपको बतलाने वाले सम्प्रदायों को धर्म पाप न करे । जिसने ईश्वरको नहीं माना उसने भी इसीलिये कहा इसलिये यह प्रश्न खडा हुआ कि धर्मों में भिन्नता है नहीं माना कि मनुष्य पाप न को दोनों का लक्ष्य एक है या नहीं? . और दोनों ही प्राणियों को सुखा बानाना चाहते है, और एक जुदे जुदे धर्मों में जो हमें परस्पर विरोध मालूम होता अंश में उन्हें सफलता भी मिली है इतना ही नहीं, परलोक हैं वह अनकान्त अर्थात् स्याद्वाद द्दष्टि के न प्राप्त करने का को न मानने वाले नास्तिकों ने भी परलोकको नहीं माना फल है। मैं यह नहीं कहता कि प्रत्येक धर्मका प्रत्येक सिद्धांत उसका कारण सिर्फ यही था कि मनुष्य समाज सुली रहे। चैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। मनुष्य प्रकृति का विचार करके जब परलोक के नाम पर एक वर्ग लूट मचाने लगा और भोले हर एक धर्म में वैज्ञानिक असत्यको स्थान मिला है। परन्तु वह । भाले लोग ठगे जाने लगे, विवेकशून्य होकर दुःख सहने को 'असत्यभी धर्मके लिये ही लाया गया है, अधर्म के लिये नहीं इस जब लोग पुण्य समझने लगे तब नास्तिक धर्म पैदा हुआ । ..: बातःको स्पष्ट करने के लिये एक उदाहरणमाला को उपस्थित इस प्रकारे आस्तिकताकी सीमा पर पहुंचे हुये ईश्वर-कर्तृत्व करने की आवश्यक्ता होगी। पहिले ईश्वरकर्तृत्व के विषय को वादी और नास्तिकताकी सीमा पर बैठे हुए परलोकाभाववादी लीजिये । * ... । - अपने अपने धर्मका प्रचार सिर्फ इसीलिये करते थे कि मनुष्य . एकं सम्प्रदाय कहता है कि जगत्का ईश्वर हः दूसरा निष्पाप बने, एक प्राणी दूसरे प्राणीको न सलावे, यह हो कहता है कि जगत्कर्त' इश्वर नहीं है। निःसन्देह इन दोने में सक्ता है कि इनमें से कोई धर्म कर्म सफल हो कोई अधिक, से कोई एक असत्य हैं। परन्तु इन दोनों वादों का लक्ष्य क्या werein चिरकालिक पर यह नि है ? ईश्वर-कर्तृत्व वादी कहता है कि अगर तुम पाप करोगे कि अपने अपने देशकाल में सब धर्मोन मनुष्य समाजको तो ईश्वर तुम्हें दण्ड देगा, नरकमें भेजेगा; अगर तुम पुण्य करोगे तो वह खुश होगा, तुम्हें सुख देगा, स्वर्ग में भेजेगा। सुखी बनानेकी और समाजके दुःखमूलक विकारों को दूर करने ईश्वर-कर्तृत्व विरोधी जन कहेगा कि अगर तुम पाप करोगे तो की चेष्टा की है। पतियारीLates. - Printed by Lalji Harsey Lalan at Mahendra Printing Press, Gaya Building Masjid Bunder Road Bombay, 3 and Published by Shivlal Jhaverchand Sanghvi for Jain Yuvak Sangh. at 26-30, Dhanji Street Bombay, 3.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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