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________________ ८ प्रसुद्धा बन Chando २२-७-33:15 BHARITRAPALI [ .. 13- 14 . हिन्दी विभाग और राजपुताना में भी कई प्रान्तों में तथा अन्य देशों में जहाँ कि इस प्रथा का विस्तार नहीं है वहां कि स्त्री समाज - तो सौभाग्य और सुन्दरता हीन ही होगी.? या बिना इस के हाथी दांत का चू डा. प्रयोग किये वहाँ की स्त्रीयों का विवाह मंगलोत्सव होता ही (लेखक:-माणिकलाल अमोलकचन्द भटेवरा.), नहीं होगा. इस का उपयोग न करने वाली जातियाँ तो हमारे बापदादा जो कुछ करते आये हैं, भले ही अब अशुभ हो समझी जाती होगी ? नहीं, नहीं, स्वप्न में भी नहीं, . वह अच्छा हो या बुरा, उन्हों ने समझ कर किया हो या भूल हम प्रत्यक्ष देखते है और यह सत्य भी है कि वहाँ के पुरुष से, अब उसकी आवश्यकता हो या न; ऐसी प्रथाओं से हमारी अपेक्षा अधिक बलशाली व दीर्घायु है। फिर ऐसा हमारा धर्म रहता हो या जाता; और यह क्यों है इसका वा वहम रखने से क्या लाभ ? . हमें ज्ञान हो या न; परन्तु उस लकीर को बराबर पकड़े प्राचीन ऐतिहासिक व शास्त्रोक्त बातों को श्रवण करने रहना हमने धर्म समझ रखा है। पुराने विचार के लोगों का . से पता लगता है कि इष्टदेव व शंखेश्वरीदेवी हम पर अति 'ही तुष्टमान थी और इसके परिणाम स्वरुप हम भी सब कहना है कि हमारे बुजुर्ग जो कुछ करते आये हैं वह ठीक । ही है। वह भूर्ख थोड़े ही थे, आजकल तुम्हें क्या मालूम ? .. , प्रकार से प्रतिष्ठित थे पर अब दुनिया के तले दबे हुए हैं कारण कि स्त्री-समाज हाथों में चूडें बंगडियाँ डालकर हम यदि उस से विपरीत करें, तो बापदादाओं को मूर्ख बनायें । मन्दिर जैसे पवित्र स्थानों में जाकर आशातना का कारण .. न? युवक भी तो अपने बापदादाओं को मूर्ख नहीं ठहराते। बनती है जिस के फल-स्वरूप देवी देवता भी हम पर से वे मानते हैं कि वे बडे बुद्धिशाली एवं समयानुसार कार्य शुभ-दृष्टि बिलग कर देते हैं इसी से तो हम अज्ञान के गहरे "चलाने वाले बुजुर्ग थे, और प्रत्येक पद्धति को वे किसी उद्देश से चलाते थे, परन्तु वह जो कुछ भी कर गये हों वह सब गह्वर में गर्त हैं। हमारे आंख होते हुए हम अन्धे है। कान होते हुए भी वीर-बचों का श्रवण करते हुवे भी बहरें ठीक ही है, और वह भूल कर ही नहीं सकते थे, ऐसा नहीं। 1बने हुवे हैं। लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि हम अपनी हृदय होते हुए भी शुभा शुभ का भेद मालूम नहीं बुद्धि को थोडा सा कष्ट दें। और अच्छी प्रकार सोच समझ कर सकते। पुरुष नाम धराते हुए भी पुरुषार्थ खो दिया। कर कार्य करें। भले ही वह पुरानी पद्धति के अनुसार हो धर्म. समाज व देश के प्रतिपालक व स्तभ्म स्वरूप पुरुषा '. या उसमें कुछ नवीनता हो। यह कोई नहीं कहता कि , की जन्म-दात्री स्त्री-समाज के होते हुए भी देश समाज व बापदादों की सारी ही बातें छोड़ दो, लेकिन जो समाज ब . धर्म की शोचनीय अवस्था हो रही है। कारण एक मात्र धर्म के लिए जहर बन चुकी हों कम से कम उन्हे तो छने हमारी आत्मा का अनुत्थान क्यों कि आत्मोन्नति के मार्ग में से भी डरना हमारा कर्तव्य है। पडे हुए है हिंसारूपी कांटे। इस में कोई संशय नहीं कि ऐसी ही एक प्रथा हमारे मारवाड़ देश की पूज्य देवि तुम इस चूड़े से होनेवाली हिंसा को बन्द कर, इतने मूक यों में बापदादाओं से चली आ रही है। मारवाड़ की देवियाँ प्राणियों की रक्षाकर उनकी शुभाशीष ले अपनी उन्नति न हाथीदांत की चूडिया एक सौभाग्य सूचक चिन्ह समझाती कर सको ? . (अपूर्ण) है। और बडे ही चान से हाथों में प्रायः कन्धे से लगाकर कलई तक पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस पहनती है। न जाने જૈન શિક્ષણ સંસ્થાઓને. આથી જેન સમાજના ત્રણે ફીરકાની શાળાઓ, પાઠइस से कोई बुद्धि विशेष या सुन्दरता का भास होता हो ? ' શાળાઓ, છાત્રાલયો, વિદ્યાલય, ગુરૂકુળા અને શિક્ષણ સંસ્થાसच्ची सुन्दरता सच्ची शोभा तो ज्ञान में और शील धर्म में शनिशान याति मासिडनी मासे भासना है, न कि इन गहनों में । फिर भला हाथों को इन से कस- म पास शिक्षा तरी प्रमट वाना. तमा कर हमेशा के लिये क्यों कमजोर बना लिया जाय । और સંસ્થાનો પરિચય આપવાનો છે તે માટે ખાસ ફોર્મ કાઢવામાં આવ્યા છે, તો બે પૈસાની ટીકીટ બીડી દરેક સંસ્થાએ નીચેના भी हाथों में हाथीदांत के चूडो न होना एक अशुभ चिन्ह સરનામેથી તરત મંગાવી લઇ ભરી મોકલી આપવાં. माना जाता है। यदि इस मान्यता में कुछ भी सत्यता का । ज्योति अक्षय. अंश प्रतीत होता हो तो गुजरात, दक्कन, बंगाल, पञ्जाब હવેલીની પોળ, રાયપુર અમદાવાદ. આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરોદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ. ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ . ૩ માં છાયું છે. અને ગલદાસ મગનલાલ શાહે જૈન યુવક સંઘ' માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ ૩, માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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