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________________ eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee emeteneneetenenerate २७६ प्रभुद्धन. ता०२४-१-33 आज भन्दिरों में पूंजीवादी लोग कैसे २ कार्य कर रहे हिन्दी विभाग. है-यह विषय सबको कुछ न कुछ अंशमें विदित है। जिन स्थानों में राग और द्वेषका लेशमात्र भी नहीं होना चाहिये, मन्दिर और पूंजीवाद. वहीं इस पंजीवाद के कारण राग द्वेष का अंकुर प्रस्फुटित होकर [श्री भंवरलाल सींधी] मानव-संसार में घोर संघर्ष का कारण बनता है। संसार मन्दिर ! मन्दिर !! मन्दिर!!! शब्द का आदर कहाँ के समस्त परिग्रह का त्याग करने वाले महापुरुषों की मूर्ति नहीं ? ये शब्द आज ही नहीं किन्तु सदासे भारतीय वायू- के चारों और आज कितना परिग्रह दिखाई देता है ? मण्डल को निनादित करते रहे हैं। सच पूछा जाय तो इस आज जैन मन्दिरों में बड़े २ तीर्थ स्थानों में प्रक्षाल गौरव से यह स्वर्णमयी भारत भूमि सदा से परिप्लावित थी, . और आरती की बोली बोली जाती है । इस प्रकार केवल धनी जैन धर्म ने इस शब्द को सम्पूर्ण संसार में प्रतिध्वनित कर पुरुष ही सर्व प्रथम प्रक्षाल व आरती कर पाते है, गरीब लोग दिया था । मेघ की प्रबल गर्जना में क्या रहस्य है ? देव . उस समदर्शी, पतित पावन, राग-द्वेष त्यागी, भगवान को मन्दिर का अनोखा सामञ्जस्य । जलाशयों की उत्ताल बीचियों सेवा कर अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकते। बड़े २ लखपति में क्या छिपा खजाना है ? प्रकृति देवी के मन-मन्दिर का और करोडपति सेठों को 'आगे पधारो सा' इत्यादि शब्दों से अटूट प्रवाह । वृक्षों की सुरीली झुर, मुर में क्या संकेत है ? आह्वान करते हैं-खड़े होकर स्वागत करते है, जब कि एक प्रकृति के सुन्दर मन्दिर की वीणा ध्वनि । निर्बलों के करुणा गरीब भाई को चाहे बैठने भर को जगह न मिले, कोई परवाह क्रन्दन में किस की झलक है ? एक दुःखी हृदय-मन्दिर की प्रदीप्त वह्नि-शिखा की! नहीं। उस समदर्शी और विश्व प्रेमी भगवान के सामने यह कलुषित अभिनय ! हाय ! न जाने कब तक होता रहेगा. यदि तलस्पर्शी बुद्धि से देखा जाय तो यह अखिल न जाने यह राग द्वेष उत्पादक संघर्ष कब तक चलता रहेगा? विश्व ही एक विशाल मन्दिर है ! मनुष्य आत्मा भी मन्दिर मैं नहीं समझ सकता कि यह बात हमारे जैन धर्म को क्या है !! मन्दिर शब्द की परिमाषा कितनी विशाल, पवित्र और . महत्व देती है? अन्य लोग जब हमारे मन्दिरों की यह दशा सुन्दर है, उसका आदर्श कितना उंचा है, यह तो विदित हो गया होगा। ऐसे पवित्र स्थान में सरल सुन्दरता का देखते है, तो खूब खिल खिला कर हँसते है। पर खेद है आभास, शान्ति का सुखद वातावरण, और विश्वप्रेम . की " कि हम तब भी अपनी दशा पर विचार नहीं करते । जब विशद झांकी वाञ्छनीय है । वहां धनी और निर्धन का संघर्ष सारा सारा शिक्षित समाज सम्मिलित वाणी से पुकार रहा है कि नहीं होना चाहिये, उँच और नीच का विचार निर्मल है। इस पूजीवाद ने ही समाज और देश को रसातल में पहंचा ताम्बे और सोने का मूल्य वहां समान होना चाहिये । किन्तु दिया है-महात्मा टालस्टाय ने अपने सरस और चित्ताकर्षक शोक और लज्जाका विषय है कि आज उस पूंजीवादने जो लेखा और पुस्तको में खूब समझा दिया है, कि यदि कोई वर्तमान संसार की एक मुख्य सृष्टि कही जाती है, हमारे पवित्र समाज और देश पूर्ण और वास्तविक उन्नति चाहता है. मन्दिरों तक की अपनी कालिमा से अछता नहीं छोडा है। यदि जातीय जीवन का, विश्व प्रेम का, और देश के सम आज यह बात लिखते हुए लेखनी कांपने लगती है चित उत्थान का सच्चा सर्वोत्कृष्ट और संतोष प्रद साधन कि उन मन्दिरों में जिनका हमने उपर वर्णन किया है और चाहता है तो वह पूंजीवादियों की सत्ता को जड़ से उखाड जो धार्मिक संस्थाएं है वहां भी पूंजीवादियों का दौरदौरा फेंक दे। है। मैं यहां विशेष कर जैन श्वेताम्बर मन्दिरों के विषय में भगवान महावीर की संतानो! विश्व प्रेमी बोर के पुत्र !! ही लिख रहा हूं। जो मन्दिरे चित्त की एकाग्रता साधनका जैन धर्म के स्तम्भो !! क्या अब भी आपकी आंखें नहीं उत्तम सोपान है वहां भी धनियों का ही वोलबाला है। खुलेगी, क्या यही जैन धर्मका आदेश है ? यही विश्व प्रेम समाजका प्रत्येक व्यक्ति तो इतना लब्ध ज्ञान और उच्च है? प्यारे युवको और समाजके नौनिहालो! यह विषय विचारचारित्री होता नहीं है कि बिना किसी पात्र और आश्रय के ही णीय है-धर्म मार्ग में रोड़े अटकाने वाला है। पंजीवादीयों चित्त की एकाग्रता कर सके, इस लिये मन्दिरों की स्थापना की काली करतूतों के कारण धर्म का वास्तविक स्वरूप विलीन की गई थी। वहां मनुष्य बैठ कर चित्त की एकाग्रता लावें. प्रायः हो रहा हैं। अब इन निन्दनी कार्यो की शीघ्र ही इति और संसार के अन्य बन्धन छौर. इच्छाओं से विरक्त होने श्री कर देना चाहिये और इस अपवादको मिटा देना चाहिये का अभ्यास करें। . कि जैन मन्दिरोंमें पूंजीवाद का साम्राज्य है। આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જેન ભાસ્કરોદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને सहास मगनलाल शाहे जैन युव संब' मा २६-30, धन स्ट्रीट, मुंग , गाथा प्रगट युथे.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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