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________________ प्रभुद्ध न. त०१०-६-33 हिन्दी विभाग. , तथा अनुसार होती आ रही थी उस के विरुद्ध पंडोंने राज्य से एकतरफा हुक्म प्राप्त कर लिया है कि पूजन-पक्षाल और बोलियों का कुल रुपया पंडों को ही मीला करे। श्रीकेसरीयाजी के लिये शिरोही का प्रस्ताव. यह हुक्म बिलकुल अनुचित और जैनसमाज की धार्मिक लागनी को दुःखानेवाला है । अतः यह सभा श्रीमान महाराणासाहब उदयपुर से प्रार्थना करती है श्रीकेसरीयाजी (रिखभदेवजी) धुलेवा (मेवाड) में कि इस अनुचित हुक्म को शीघ्रही रद करने की 'पंडों का अत्याचार बढ जाने के कारण वहांपर अनुचित कृपा करे। कार्यवाही हो रही है। संवत १९३४ में रियासत मेवाड २ यह सभा श्रीमान महाराणाजी साहब से प्रार्थना करती से ट्रस्टी तरीके इन्तजाम किया जाकर आठ जैन श्वेताम्बरों है कि इस एकतरफा हुक्म के अनुसार पूजा-पक्षाल की एक कमेटी मुकर्र हो कर प्रबंध देवस्थान के ताल्लुक की बोली दिलाने का हुक्म होना सुनने में आया है हुआ। संवत १९३५ में रियासत मेवाडने इश्तहार के सो रद किया जाय और यह आमदनी पंडों को जरिये यह घोषणा की थी कि केसरीयाजी तीर्थ की खर्च व नही दी जाय । आमदनी की व्यवस्था जैनों की राय से होगी, लेकिन इस कमेटी की राय के वगैर रियासत अपनी इच्छा अनुसार - ३ यह सभा प्रस्ताव करती है कि रिखवदेवजी जैन तीर्थ है और हमेशा से ध्वजादंड आदि जैन रीति अनुसार कार्य करती है। होता है । अब वैष्णव रीति अनुसार जो ध्वजादंड पुजन-पक्षाल की जो बोली बोली जाती है उस की ... चढाने का निश्चय किया गया है वह रद किया जाय आमदनी भण्डार में जमा होने का कहा जाता है लेकिन । और हमेशां माफिक दरेक कार्य जैनधर्मानुसार मालुम हुआ है कि पंडोने जो इकरार लिख दिये थे, तथा किया जाय। . संवत् १९०६ ब १९१६ में रियासत मेवाड से इस आमदनी में से रु. १) रोजान पड़ों को देने का हुक्म हुआ था ४ ४ जब तक हमारा पैसा सुरक्षित न हो जाय तब तक और मोजूदा महाराणासाहबने संवत् १९७९ की 'कार्तिक सब यांत्रियों को चाहिये कि तीर्थपर पूजन-पक्षाल वद६ तथा संवत् १९८७ में जो हुक्म दिआ था उन के । की बोली, बडी पूजन, आंगी वरघोडे, भंडार में, आरती खिलाफ संवत् १९८९ के श्रावण शुदि १२ को एकतरफा में, पंडों सो रूमाल ले कर, हस्ताक्षर कर कुछ देना, मूल गभारे की पेटियों में पैसे डालना, गरम पानीवाले, हुक्म पूजा-पक्षाल की कुल आमदनी पंडों को दिलाई जावे एसा हुक्म हांसिल किया है। पंडों का इस आमदनी पर केसर घिसनेवालों को इनाम आदि किसी प्रकार की कोई अधिकार नही है । भंडार में जमा होनी चाहिये जैसा । बोली या पैसा किसी को भी न देवे क्यों कि उन सब के बोली के वक्त हमेशा कहा जाता है। को भंडार से तन्खाह मिलती है। इस के अलावा भोग लगाने व दीगर जैन रीतियों को ६ अगर किसी के कोई बोलया आदि कोई खर्च करना बंध करने की कार्यवाही करने इस तीर्थ को वैष्णव तीर्थ होवे तो रकम जैसा कि आचार्य महाराज श्रीविजयकरार देने की पंडे कार्यवाही कर रहे है। इस लिये मनमानी वल्लभसूरिजीने देशना में फरमाया है कि केसरीयाव अनुचित कार्यवाही का विरोध करने के लिये आज. श्री जी को न भेजते दूसरे तीर्थ या मंदिर में लगाना सिरोही जैन संघ की यह सभा न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्री शास्त्रों के विरूद्ध नही है । श्रीकेसरीयाजी के नाम से किसी भी तीर्थ में या मंदिर के नाम से खर्च श्री १००८ श्रीविजयानंदसूरिजी महाराज के पट्टधर आचार्य कर सकते है। महाराज श्रीविजयवल्लभसूरिजी. की अध्यक्षता में निम्न लिखित प्रस्ताव सर्वानुमते पास कर दिये है। निवेदक१ यह सभा यह ठहराव करती है कि श्रीकेसरीयाजी श्रीश्वेताम्बर जैन संघ-सिरोही. - तीर्थ की व्यवस्था जिस प्रकार संवत १९०६ के આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જેન ભાસ્કરોદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને ગોકલદાસ મગનલાલ શાહે જૈન યુવક સંધ’ માટે ૨૬-૭ ૦, ધનજી સ્ટ્રીઢ,* મુબઈ , માંથી પ્રગટ કર્યું છે.
SR No.525918
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 Year 02 Ank 11 to 45 - Ank 39 40 and 41 is not available
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutariya
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages268
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size30 MB
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