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aaneeseserenaeconocareerenceaetenerenceanementcene. २०४: प्रद्धशन..
त०२२-४-33
उपाधियों की
हिन्दी
- सिद्धांतिक वचन और साधुओं के आचार विचार के नियमोंका विभाग...उल्लंघन न हो इसका भान रखने की आवश्यकता है. जिन
सत्कर्मों के उपलक्ष में उपाधियां दी जाती हैं. उन कर्मों का
प्रायः ये उपाधियां स्वीकार करने से विक्रय सा हो जाता है, अब समयनें पलटा खाया है. जैन समाज अपने और इतने समय तक किये हुए आत्मोद्धार के प्रयत्न को. उत्थानके लिये प्रयत्न करने लगा है. सभी संप्रदाय अपनी. स्वल्प में निष्फल कर दिये जाते हैं. वर्षों से किये हुए कर्मों अपनी ओर से कुछ न कुंछ कर रहे हैं. ऐसे समय यदि का इस प्रकार अंत. करना याने सब दिन चले और ढाई समाज को उस के दोषों से परिचित न किया जावे तो क्या. कोस वाली उक्ति जैसा होता है. यदि दिक्षा ग्रहण. पंच.
समाज का अधःपतन होकर वह नष्ट भ्रष्ट होने के पश्चात महाबत पालन, तप.संयमादिका, अंतिम ध्येय मोक्ष साधन . किया जावे?..... . . . है तो यह उपाधि की व्याधि साधु मुनिराजों के मत्थे मढ
-पूर्व कालिन इतिहास हमे बताता है कि समाज का कर उन्हें उनके ध्येयसे पतित करने में श्रावकोंको लाभ क्या ? उत्थान, वा पतन उस के गुरु या साधु वर्ग पर ही विशेषतः अच्छा हो यदि ये उपाधिदान की क्रिया भविष्य में सर्वथा निर्भर होता है। यदि साध 'आचार या क्रिया भ्रष्ट हो जावें त्याग दी जावे आत्मोद्धार के मार्ग में ऐसी कृतियां हमेशा तो गृहस्थ या समाज पर उनके उपदेशका प्रभाव नहीं गिर कटकरूप हुआ करता है. अतःसुज्ञजना क लिय कटक उठा. सकता, किन्तु उसका दुष्परिणाम सारे समाज पर होता है. कर यदि मार्ग स्वच्छ कर लीया जावे तो आशा है कि जैन दुर्भाग्यवश ऐसे चिन्ह जैन साधुओमें इस समय दिखाई देने .
समाज निकट भविष्य में, फिरसे अपने गौरव और उन्नतिको.
पहुंच जावेगा.... लगे हैं. काम, क्रोध, लोभ, मोहादि का उन पर परिणाम हो
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यदि जैन समाजको अपना पुनरुत्थान करना है, रहा है. यही कारण है कि उन के संबंध में समाजकी सद्भा- अपना गत गौरव प्राप्त करना है तो वर्तमान में साधुश्रावकों वनामें तृटि दिखाई देने लगी है. श्रद्धा में अविश्वास धर कर के आचार में जो शिथिलता आ गई है, धर्मके मूल सिद्धान्तो रहा है और जिन जिन वांतों की वे वांछा करते हैं वे सब का मर्म न समझ कर उसके विकृतार्थ से समाज निस्सत्व उन से दूर जाना चाहती हैं. इतना होते हुए भी सम्मान.की
वीर्य हीन निरुत्साही और सत्पथच्युत हो रहा है उस में
तात्विक देश कालानुसार सिद्धांतो का शुद्ध परिवर्तन कर लालसा इतनी बढ़ रही है कि किसी दिन उसकी सीमा न
जैन समाज को सत्पथ गामी बनानेकी बहुत अवश्यकता है. रहेगी. इस मानके हस्ती पर सवार होने पर उनके चारीत्र आशा है कि हमारे परम पूज्य गुरुजन और समाजके सूज्ञ पालन में क्या क्या दोष लगते हैं इसका दिग्दर्शन करनेसे नेता अपनी संकीर्ण दृष्टि और सांप्रदायिक वृथाभिमान को न, करना ही ठीक. उपाधि की उपाधि भी दिन दूनी बढ़ रही त्याग कर भारतीय उत्थानकी धुडदौड में कदापि पीछे है। कोई व्याकरणाचार्य है तो कोई कवि रस्त, कोई श्री न रहेंगे. अस्तु... ठाकुर लक्ष्मसिंहजी चौधरी पूज्य. कोई युवराज.''इतना ही होकर रहता तो ठीक. परंतु बामणवाडजीमें केसरीयाजीके लिये किया हुवा ठराव. इन पदवियोंकी पूंछ अब हनुमानजी की पूंछ जैसी बढ़ती ही "अपने श्री केसरीयाजी तीर्थ की व्यवस्था जिस प्रकार जा रही हैं.. योग्यायोग्यता का प्रश्नहीं नहीं. उपाधि मात्र बहुत समयसे होती आ रही थी। उसके विरुद्ध पंडोने राज्यसे होना चाहिये और वह भी, लंबी लंबी.. यहां तक कि तीन. एक तरफा हुक्म प्राप्त कर लिया है कि पूजन प्रक्षालन और तीन लकीरों में भी वे पूरी न हो सके...
. बोलियां का कुल रुपया पड़ों को ही मिला करे। यह हुक्म ___इस में उपाधि धारियों को भी अधिक दोष नहीं दिया बिलकुल अनुचित और जैन समाज की धार्मिक लागनी को जा सकता, साधुओंकी अनिच्छा होते हुए भी हम भक्तजन दुःखाने वाला है, अतः यह. पंदरह हज़ार जैनो की यह 'सभा उनके सिर ऐसी उपाधियां बलात् जङ देते हैं, और उन्हें श्रीमान् महाराजा साहिब उदयपुरसे प्रार्थना करती है कि विवश होकर वे स्वीकार करनी होती है. श्रद्धावान-शिष्यवृंद इस भनुचित हुक्म को शीघ्र ही रद करनेकी कृपा करें और अत्यादर और भक्तिवशता में तल्लीन होः ये उपाधियां गुरु- अब तक हमारा पैसा तीर्थ के भंडार में है जमा न होने लगे जनों की तपश्चर्या, समाज वा धर्मकार्यके उपलक्ष में जबरदस्ती तब तक सब यात्रियों को चाहिए कि तीर्थ पर किसी प्रकार ही उनके गले लटका देते हैं. परंतु ऐसे अवसर पर जैन की बोली न बोलें और वहां एक पैसा भी खर्च न करें।"
આ પત્ર મનસુખલાલ હીરાલાલ લાલને જૈન ભાસ્કરોદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ નં. ૩ માં છાપ્યું છે. અને
हास मगन सा रेन युव सव' माटे २१-३०, धनीर, . 3, भांथा प्रगट यु छे......