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________________ २२० dot-4-33 हिन्दी विभाग. सजनों! अगर यही स्थिति रही तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि उन्नति की इस घुडदौड में हम कहाँ तक अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे। जैनधर्म का ऐतिहाजिक गौरव मेरा ख्याल है कि केवल इतिहास के पृष्टों पर ही हमारा नाम शेष रह जायगा । अत एव यदि जीवित -वायु सुगनचंदजी लुणावत. जातियों में हमें अपनी गणना करवाना है, यदि इति[बाबु सुगनचंदजी लुणावतने अखिल भारत- हास के पृष्ठों पर हमारे पूर्वजों के गौरव के साथ २ वर्षीय स्था. जैन नवयुवक परिषद के प्रथम अधि- हमें अपना नाम अंकित करवाना है, यदि संसार के वेशनके स्वागताध्यक्ष के स्थानसे जो स्पीच दौथी। अन्दर सच्चे जैनी बनकर रहना है तो सजनों, अब उसका कुछ भाग अपनी समाजको उपयोगी होनेसे उस पुरानी लकीर को पीटने से काम नहीं चल उध्धृत किया है. -तंत्री हिंदी विभाग] सकता। संसार में होने वाले परिवर्तनों के साथ २ हमें भी हमारी कार्य-पद्धति (Constitution) के सज्जनों, हमारे जैनधर्म की उत्पत्ति और इसका " प्रवाह को परिवर्तन करना पड़ेगा। इतिहास जैन समाज ही के लिए नहीं वरन् मनुष्यजाति के लिए आशीर्वाद रूप है। विश्व-बन्धुत्व और नवयुवक शक्ति' , नवयुवक शक्ति को जागृत करने की आवश्यकता अहिंसा के जिस महान ध्येय को लेकर इस विश्व- . इन परिवर्तनों में हमें सबसे पहले इस बात की व्यापी धर्म की सृष्टि हुई है, वह ध्येय इतना ऊँचा जरूरत है कि हम लोग हमारे समाज की नवयुवक और इतना पवित्र है कि ज्यों-ज्यों संसार आगे बढता शक्ति को संगठित ओर जागृत करें। संसार के इतिजायगा और वैज्ञानिक खोज ज्यों-ज्यों तरकी करती हास में नवयुवक शक्ति ने जो महान कार्य सम्पन्न जायगी त्यों-त्यों इस ध्येय की महत्ता का संसार किये। वे इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अङ्कित स्वागत करता चला जायगा। संसार के सब से बडे हैं। मगर आज हमारे देश के नवयुवकों का क्या महापुरुष ने आज जिस मार्ग से सारे संसारको आश्चर्य हाल है ? चारित्र-बल ओर संगठनबल के अभाव की चकित कर रक्खा है, मुझे कहने दीजिये, कि वह वजह से उनके मुख-मण्डल तेजोविहीन हो रहे हैं। मार्ग आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे परमपूज्य उनकी शक्तियाँ जीर्ण हो रही हैं और जो चाहते हैं तीर्थकर भगवान महावीर ने निश्चित किया था। उनको करने में वे अपने आपको असमर्थ पाते हैं। भगवान महावोर के जीवन और उनके सिद्धान्तों में ऐसी स्थिति में हमारे लिए सब से बडी आवश्यकता जैनधर्म की विशालता का बीज छिपा हुआ है, मगर इस बात की है कि हमारे जैन नवयुवकों का एक ऐसे विश्व-व्यापी और विशाल धर्म की आज क्या मजबूत संगठन हो जो हमारे नवयुवकों को चरित्र-बल स्थिति हो रही है। संसार की आंखों के सामने आज के उच्च आदर्श पर पहुँचाने में सहायक हों। जबतक हम ग्यारह लाख जैनियों की क्या स्थिति है यह बात हमारे नवयुवकों का चरित्र-बल एक उच्च आदर्श पर वर्णन करते हुए भी हमारा हृदय द्रवीभूत हो जाता नहीं पहुँचेगा, तबतक किसी भी प्रकारके सुधार की है। आज हमारो जगत प्रसिद्ध वीर अहिंसा में से आशा करना व्यर्थ है। इसलिए एक अखिल भारतकायरता का जन्म होता है और हम लोग कायर जाति वर्षीय जन नवयुवक-संघ की स्थापना होगा आवश्यके नाम से मशहूर हो रहे हैं। धर्म के विशाल ओर कीय है। इसके कम से कम ५०००) नवयुवक सदस्य विश्व-व्यापी सिद्धान्तों को एक ओर रख कर हम हों ऐसे जो संघ के एक इशारे पर जहाँ चाहे वहाँ पर लोग छोटी २ बातों और छोटे २ मतभेदों के पीछे एकत्रित हो सके। अगर इतना बडा संगठन हमारे अज्ञानियों की तरह लडते हुए अपने संगठन ओर जैन-नवयुवकों का होजाय तो समाज के अन्दर बहूत शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं। शीघ्र सुधार की धारा प्रवाहित हो सकती है। મા પુત્ર મનસુખરાજ હીરાલાલ લાલને જૈન ભારકરદય પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુબઈ ન, ય માં. છાપ્યું છે. અને ગેકલદાસ મગનદાસ શાહે જૈન યુવફ સંધ’ માટે ૨૬-૩૦, ધનજી સ્ટ્રીટ, મુભછે કે, માંથી પ્રશ્ન કર્યું છે,
SR No.525798
Book TitlePrabuddha Jivan - Prabuddha Jain 1933 05 Year 02 Ank 27 to 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrakant V Sutaria
PublisherMumbai Jain Yuvak Sangh
Publication Year1933
Total Pages34
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Prabuddha Jivan, & India
File Size3 MB
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