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SHRUTSAGAR
March-2020 का वर्णन किया गया है। तीसरे अध्याय में शुभाशुभ कर्मों के उपार्जन में कारणरूप ४२ प्रकार के आस्रवों का वर्णन किया गया है। चौथे अध्याय में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा मन, वचन और काया के योगरूप बन्ध हेतुओं के द्वारा जीव का कर्मपुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसका वर्णन किया गया है। पाँचवें अध्याय में ५७ प्रकार के संवरों का वर्णन किया गया है। छठे अध्याय में सकाम और अकाम दो प्रकार की निर्जरा का वर्णन किया गया है। सातवें अध्याय में मोक्षतत्त्व, आठवें अध्याय में सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन नौवें अध्याय में सम्यक् चारित्र तथा दसवें अध्याय में आराधना और विराधना के फलों का वर्णन किया गया है।
इस ग्रन्थ के अन्त में पूज्य मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी के द्वारा किए गए गुजराती भाषान्तर को भी प्रकाशित किया गया है, जो वि. १९७४ में प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत ग्रंथ का पूर्व प्रकाशन संपादक मुनि श्री चतुरविजयजी द्वारा जैन आत्मानंद सभा भावनगर से हुआ था। यह ग्रंथ वर्तमान में लगभग अप्राप्य है। मूल, टीका और भाषान्तर एक ही पुस्तक में प्रकाशित होने से यह पुस्तक अध्येताओं के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। लगभग सौ वर्ष पूर्व हुए इस भाषान्तर को यथावत् ही रखा गया है, मात्र आधुनिक भाषा के अनुसार उसमें किंचित् परिवर्तन किया गया है। टिप्पण
आदि को परिशिष्ट के रूप में अन्त में रखा गया है। पूर्व सम्पादन में छद्मस्थतावश रह गई सामान्य अशुद्धियों को आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में संग्रहित प्रत सं. ५५९५६ के आधार पर पाठशुद्धि की गई है, जिससे इस प्रकाशन की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। ___ चार अनुयोगों के पारंगत विद्वान दिगंबराचार्य श्री कुंदकुंदाचार्यजी ने भी समयसार नाम से एक अन्य कृति की रचना की है। जिसमें सर्वसंग का परित्याग कर श्रुत का अभ्यास करनेवाले और जो मोक्ष के अभिलाषी हैं, ऐसे मुनियों के मन में जो सैद्धान्तिक शंका-कुशंकाएँ रह गई हों, उन्हें दूर करने का सुन्दर प्रयास किया गया है। इस ग्रन्थ में जीवाजीवादि नौ तत्त्वों का वर्णन करते हुए निश्चय नय व्यवहार नय आदि के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गई है। परन्तु दोनों ग्रन्थों का विषयवस्तु व उद्देश्य समान होने के बावजूद इन दोनों ग्रन्थों के बीच परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है।
(अनुसंधान पृष्ठ-३४ पर)
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