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जनवरी-२०२०
श्रुतसागर तुझ प्रसादई करी मइं लह्यो, ताहरु धर्म जगभाण रे। तेहनूं फल हवइ दीजि(जी)इ, वेग करि(रु) केवलनाण रे वंछितदायक तूं सुण्यो, मांगीइ तेण जगदीस रे। भवि भवि सेवना तुम तणी, पूरयो एह जगीस रे
॥२७||जय..
॥२८॥जय...
कलस
श्रीकपडवाणिज-नगरमंडण वीनव्यो इम जगधणी, धरणिंद पउमावई सेवित पास श्रीचिंतामणी। उवज्झाय विमलहरष सुंदर श्रीमुनिविमल वाचक गुणी, तस सीस पामइ पास नामइ भाव सुख संतति घणी
मुनि लालविजयजी कृत आलोचनागर्भित झोटाणामंडण अजितनाथ-पार्श्वनाथ स्तवन
॥२९॥
॥१॥
॥२॥
on भट्टारक श्री७ श्रीविजयाणंदसूरिगुरुभ्यो नमः ।। श्रीगुरु प्रणमी सरसति समरी, अजित पास आराहुं। झोटाणामंडण जिन आगलि, आलोइ° निर्मल थाउं हविं देव तुह्म नामिं छूटुं, नहीं बोलुं हुं खोटुं। राव करुं नी(नि)ज ठाकुर आगलि, तुं मुझ भायग२ मोटुं कोइक पाछिला पुन्य-प्रभावइ, मानव- भव लाव्यु(ध्यु)। देव-गुरु-धर्म तणी सामग्रही(ग्री), लेई तुह्म सरणे आव्यु मइं आ भव जातु३ नवि जाणो(ण्यु), व्रत पच्चखाण न कीधा। पुन्य करुं नहीं पाप करुं बहु, आडा उत्तर दीधा नुकारसी संभरइ नहीं मू(मु)झ, पोरसि मन्न न जाइ। साढपोरसि लगिं न खमाइ, पुरिमढ मोडु थाइ बिइं(या)सणुं करुं संतोषि(ष) नहीं मुझ, जे ते बिठो ठूगु। एकासणइ बिठा न रहिवाइ, निविइं लूटुं कवं(व)गुं२५
॥३॥
॥४॥
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