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विचारमंजरी स्तवन
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गणि सुयशचंद्रविजयजी
‘विचारषट्त्रिंशिका’ के ‘विज्ञप्ति षटत्रिंशिका' जेवा अपर नामे ओळखाती प्रभुने विज्ञप्ति रूपे रचायेली स्तवना एटले ज दंडक प्रकरण । दंडक शब्दनो अर्थ थायजीव जेनाथी दंडाय ते दंडक । अनादि काळथी कर्मोना भारथी दबायेलो जीव विविध गतिओमां भिन्न भिन्न स्वरूप ग्रहण करतो संसारमां भम्या करे छे । क्यारेक देवगतिमां, तो क्यारेक नारकगतिमां, क्यारेक तिर्यंचगतिमां, तो क्यारेक मनुष्यगतिमां, क्यारेक वळी एकिंद्रियस्वरूपे, तो क्यारेक पंचिंद्रिय स्वरूपे एम घणां भवोमां भटके छे । कर्मनी परवशताथी ज जीवने ते-ते भवमां तेवा - तेवा शरीर, इन्द्रियादिकनी प्राप्ति थाय छे। गजसार मुनिए दंडक प्रकरणमां ते-ते भवोनी साथै प्राप्त थता शरीरादि २४ द्वारोनी विगते वर्णना करी छे ।
गजसार मुनिए सौ प्रथम पूर्वाचार्य रचित ग्रंथोमांथी दंडकनो विचार उद्धरीने प्राकृत भाषामां प्रस्तुत प्रकरणनी रचना करी । त्यारपछी बालजीवोना बोधने माटे विविध विद्वानोए संस्कृत-गुर्जरादि भाषामां वृत्ति, अवचूरि, टबादि साहित्यनुं सर्जन कर्यु। काळक्रमे १७मी सदीनी आसपास ज्यारे भक्तिपरक गेय भाषा साहित्यनी रचनाओनो प्रारंभ थयो त्यारे जीवविचार, नवतत्वादि अध्ययनोपयोगी प्रकरण ग्रंथना गुर्जर पद्यानुवाद लोकोपभोग्य बन्या । आ ज अरसामां अन्य प्रकरण ग्रंथोनी जेम दंडक प्रकरणना पण पद्यानुवाद थया । उपाध्याय चारूचंदजीए श्रीशांतिनाथ प्रभुनी दंडक विचारगर्भित स्तवना रची, तो कवि धर्मसुन्दरजीए दंडक विचारगर्भित आदिनाथ प्रभुनी स्तवना बनावी। महावीरजिनविनतिरूप दंडकगर्भित स्तवननी रचना कवि पद्मविजयजीए करी, तो आचार्य पार्श्वचंद्रसूरिए ९९ पद्योमा दंडकनुं स्वरूप वर्णव्यं । जो के आ बधी ज रचनाओने दंडक प्रकरणना आधारे करायेल मुक्तानुवाद कही ते वधु योग्य रहेशे। प्रस्तुत लेखमां प्रकाशित कवि जग ऋषि (जगर्षि) नी रचना पण उपरोक्त स्तवन श्रेणिमां उमेराती विशिष्ट रचना छे।
संपादित रचनानुं नामाभिधान कविए 'विचार षट्त्रिंशिका' ना आधारे ज ‘विचारमंजरी स्तवन’ कल्पेलुं होय तेवुं लागे छे । कविए अहीं दंडक प्रकरणनी जेम एक-एक दंडकपदमां २४ द्वारो वर्णन न करता, २४ द्वारोमा (१) प्राण (२) संज्ञि एम २ द्वारो उमेरी २६ द्वारोनुं स्वरूप आलेख्युं छे । जो के तेवुं करता कोईक-कोईक पदमां कवि बधा ज द्वारो स्पष्ट समजावी शक्या नथी, तो क्यांक वळी एक दंडक पदना
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