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श्रुतसागर
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जनवरी-२०१७ में सिन्धु सौवीर देश के वीतभय, पत्तनपुर के राजा उदायन जिसे जीवन्त स्वामी कहा जाता था। इसकी पूजा, उदायन और उसकी रानी प्रभावती किया करती थी। प्रभावती की मृत्यु के पश्चात् उसकी दासी देवदत्ता उस मूर्ति की पूजा किया करती थी। उसका उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत से प्रेम हो गया जिसके साथ वह उज्जयिनी भाग गयी। भागते समय वह अपने साथ जीवन्त स्वामी की मूर्ति भी लेती गयी लेकिन उसके स्थान पर एक वैसी ही दूसरी मूर्ति छोड गयी। यह सब ज्ञात होते ही उदायन ने चण्डप्रद्योत का पीछा किया और उसे कैद कर लिया। लौटते समय, अतिवृष्टि के काराण उदायन चार माह के लिये शिवना के तट पर रूक गया। एक दिन पर्युषण पर्व में उसका उपवास था। रसोईए से यह जान कर चण्डप्रद्योत ने भी अपना उपवास घोषित कर दिया। यह सुनकर उदायन समझा कि चण्डप्रद्योत जैनधर्मावलम्बी है, अतः उसने उसे ससम्मान मुक्त कर दिया। फिर, उसने उस प्रतिमा को लेकर वहाँ से प्रस्थान करना चाहा पर वह प्रतिमा वहाँ से हटायी न जा सकी। देववाणी से ज्ञात हुआ कि उसकी राजधानी शीध्र ही भूमिसात हो जाने वाली है अतः यह प्रतिमा यहीं रहनी चाहिए। अतएव उदायन ने वहीं एक मन्दिर का निर्माण कराया और उसमें वह प्रतिमा स्थापित कर दी। अपने देश को लौटकर चण्डप्रद्योत ने जीवन्त स्वामी की पूजा की और उस मन्दिर को १२०० ग्रामों का दान किया। 1 व्याख्याप्रज्ञप्ति(१३,६: पृ. ६२०)में इसे सिन्धु नदी के आसपास का प्रदेश कहा गया है। 2 यह सिन्धु सौवीर की राजधानी थी और इसका दूसरा नाम कुम्मारप्रक्षेप (कुमरपक्खेव) था। देखिये
आवश्यकचूर्णि, २२२ पृ. ३७। इसके समीकरण के लिये देखिये : जैन जगदीशचन्द्रः जैन आगम
साहित्य में भारतीय समाज पृ. ४८२। 3 इसका उल्लेख महावीर स्वामी द्वारा दीक्षित आठ राजाओं के साथ हुआ है । देखिये स्थानाङ्ग, ६२१,
व्याख्याप्रज्ञप्ति, १३,६। 4 उत्तराध्ययनन टीका, १८ पृ. २५३ आदि। आवश्यक चूर्णि, पृ. ४०० आदि राय चौधरी, एच. सी.
पालिटिकल हिस्ट्री ऑफ एंश्येंट इण्डिया, (कलकता १६३२) पृ. ६७, १३२, १६५/ 5 प्रद्योतोपि वीतमय प्रतिमायै विशुद्ध धीः । शासनेन दशपुरं दत्वावन्ति पुरीमगात् ॥
अन्येधुर्विदिशां गत्वा भायलस्वामिनामकम् । देवकीयं पुरं चक्रे नान्यथा धरणोदितम् । विद्युन्मालीकृतायै तु प्रतिमायै महीपतिः। प्रददौ द्वादश ग्राम सहस्रं शासनेन सः॥
- हेमचन्द्राचार्यः, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०/२/६०४-६। 6 यह वास्तव में महावीर स्वामी की प्रतिमा थी जिसे महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही निर्मित कराये
जाने के कारण जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा जाता था । परन्तु इस नाम की प्रतिमा की परम्परा लगभग एक हजार वर्ष तक चलती रही। देखिए; उमाकान्त प्रेमानन्द का लेखः जनरल ऑफ दी ओरिएण्टल इंस्टीट्यूट जिल्द 1, अंक १, पृ. ७२ और आगे तथा जिल्द १, अंक ४, पृ. ३५८ और आगे।
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