________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
25
श्रुतसागर
जुलाई-२०१६ कुब्ज - कर्पर - कीले कः खः अपुष्पे ८.१.१८१ - प्राकृत शब्दों में व्यंजनों के परिवर्तन भी विशिष्ट प्रकार से प्राप्त होते हैं जैसे- क का ख
कुब्जः – खुज्जो, कर्परम् – खप्परं, कीलकः – खीसओ। बद्धवा कुब्जक प्रसूनम् – बंधेउं कुज्जय पसूणं ।
इस वाक्य में कुब्ज शब्द पुष्प अर्थ का सूचक है इसलिए क - ख नहीं होता यह परिवर्तन प्राकृत में प्राप्त है और आर्ष प्राकृत में तो इसके अलावा और भी कई शब्दों में यह परिवर्तन होता है जैसे
कासितम् – खासिअं, कसितम् – खसिअं, कासितेन – खासिएणं। यह प्रयोग अन्नत्थ उससिएण नामक जैन प्रतिक्रमण सूत्र में उल्लेखित है। प्रत्यादौ डः ८.१.२०६ - प्रति आदि शब्दों में त का प्रायः ड होता है।
प्रतिभासः – पडिहासो, प्रतिमा – पडिमा, व्यावृतः – वाबडो, पताका - पडाया, बिभीतक – बहेडओ, हरीतकी - हरडई, मृतकम् – मडयं आदि कई उदाहरण हैं।
आर्ष प्राकृत में अपने विशेष रूप से यह भी परिवर्तन होते हैं कि त का ड होता है जो कुछ शब्दों में प्राप्त है।
दुष्कृतम्-दुक्कडं, सुकृतम्-सुक्कडं, आहतम्-आहडं, अपह्यतम्-अवहडं
आर्ष प्राकृत में कई स्थानों पर प्रायः अर्थ को लेते हुए त - ड परिवर्तन प्राप्त नहीं होता। _प्रतिसमयम् – पइसमयं, प्रतिपम् – पइवं, संप्रति – संपइ, प्रतिष्ठानम्पइट्टाणं, प्रतिज्ञा – पइण्णा इस प्रकार कई शब्दों में त - ड आदेश किया है। इसके उपरांत भी आर्ष प्राकृत में विशेष रूप से कहा गया है की ढ भी मिलता है और परिवर्तन नहीं होता एसे भी उदाहरण मिलते हैं।
नो णः ८.१.२२८ – अनादि असंयुक्त रूप से स्थित न के स्थान पर ण होता है इस प्रकार का परिवर्तन प्राकृत में होने के उपरांत आर्षप्राकृत में भी यही होता है और नहीं भी होता जैसे
For Private and Personal Use Only