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SHRUTSAGAR
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March-2016 उसके वोलने में आम्रमंजरी ही एक मात्र हेतु है, उसी प्रकार अल्पश्रुत वाला होने पर, एवं विद्वानों में उपहास का पात्र होने पर भी अगर में भगवान की भक्ति में प्रवर्तन कर रहा हूँ तो उसमें भगवान के गुण ही एक मात्र हेतु हैं। ___ उत्प्रेक्षा अलंकार- जहाँ उरपमेय की उपमान के साथ सम्भावना की जाती है वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इस स्तोत्र में इसका प्रयोग दृष्टव्य है -
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद मारभ्यते तनु धियाऽपि तवप्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी दलेषु मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिंदुः ॥८॥
हे प्रभु में ऐसा मानता हूँ कि अल्पबुद्धि वाला होने पर भी मेरे द्वारा निर्मित यह स्तवन सज्जनों के चित्त का वैसे ही हरण करेगा जैसे कमलपत्रों पर पडे हुए जल के कण सूर्य किरणों के प्रभाव के माध्यम से मोतियों की कांति को प्राप्त होते है।
वैधर्म्य उपमा अलंकार - जहाँ उपमान को हीन दिखाकर उपमेय को श्रेष्ठ बताया जाता है वहाँ वैधर्म्यउपमा अलंकार होता है । इसका प्रयोग मानतुंगसूरि तेरहवें पद में करते हैं -
वक्त्रं क्वते सुर नरोरग नेत्र हारि निःशेष निर्जित जगत्रितयोपमानम्। बिम्बं कलंक मलिनं क्व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥१३॥
हे देव! आपका मुखमंडल देवताओं मनुष्यों एवं तिर्यंचों के नेत्रों को आकर्षित करने वाला एवं तीनलोक की समस्त उपमाओं को जीतने वाला है। उसकी तुलना चंद्रमा के साथ कैसे हो सकती है जो कि दिवस में पलाश की भांति कांतिहीन हो जाता है।
अर्थान्तरन्यास अलंकार - जहाँ सामान्य का विशेष के द्वारा अथवा
1.सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेत यत्
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