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संपादकीय
डॉ. उत्तमसिंह श्रुतसागर का यह अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित है। इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के तहत आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. कृत 'प्रभु विरहोद्गार' नामक पद्यात्मक रचना प्रकाशित की जा रही है। जिसमें प्रभु महावीर के प्रति भक्तजनों के अनन्य वात्सल्य का निरूपण किया गया है। द्वितीय लेख परभवमां पडवाथी हानि' भी आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी कृत है, जो औपदेशिक और प्रेरक है।
तृतीय व चतुर्थ लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' तथा 'Golden Steps to Salvation' से क्रमबद्ध श्रेणी के तहत प्रकाशित किये जा रहे हैं।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के तहत प्रस्तुत अंक में पं.श्री वीरविजयजीकृत 'गुरुविहार गहुँली' नामक प्राचीन कृति प्रकाशित की जा रही है। ____ मारुगुर्जर भाषा में गुम्फित यह पद्यात्मक रचना अतीव रोचक, बोधप्रद एवं भक्तिमय है। इसका प्रकाशन वि.सं. २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लिपिबद्ध हस्तप्रत के आधार पर किया जा रहा है जो श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा के आचार्य श्री कैलासागरसूरि ग्रन्थागार में संग्रहीत है। इसके अलावा इस कृति की अन्य पांच हस्तप्रतें भी ज्ञानभंडार में संग्रहीत है जिनका सहयोग भी इसके प्रकाशनार्थ लिया गया है।
भूतपूर्व प्रो. हीरालाल रसिकलाल कापडियाजी का गुजराती लेख 'श्री शीलांकसूरि ते कोण?' पुनः प्रकाशित किया जा रहा है, जिसमें इन पूर्वाचार्यों का संक्षिप्त एवं सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ___ आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में ग्रन्थसूचना शोधपद्धति एक परिचय' लेख के तहत इस ग्रन्थागार में विद्यमान शोधसामग्री वाचकों के लिए कम से कम समय में उपलब्ध कराने हेतु प्रयुक्त संगणकीय प्रक्रिया का परिचय दिया गया है। जिसके माध्यम से हम अपने वाचकों को आवश्यक सामग्री यथाशीघ्र उपलब्ध करा पाते हैं।
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