________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ गुरुविहार गहुंली॥
डॉ. उत्तमसिंह प्रस्तुत कृति गुरुविहार गहुँली' प्रसिद्ध कवि श्री वीरविजयजी द्वारा रचित है। प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित इस कृति का प्रकाशन वि.सं. १९४१ में लिपिबद्ध हस्तप्रत के आधार पर किया जा रहा है जो ‘आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा' के ग्रन्थागार में संग्रहीत है। इसके अतिरिक्त हमारे ग्रन्थागार में इसी कृति की लगभग अन्य पाँच और प्रतियाँ संग्रहीत हैं जिनका सहयोग भी हमने इस कृति के संपादन में लिया है। कृति, कर्ता एवं हस्तप्रत आदि का संक्षिप्त परिचय निम्नवत है__ कृति परिचय : सत्तरह गाथाओं में गुम्फित प्रस्तुत पद्यबद्ध कृति मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध है। अति सुन्दर, सरल, सरस इस रचना को 'गुरुविहार गहुंली' नाम दिया गया है, जिसके माध्यम से जैन श्रावक-श्राविकाओं की जैनधर्म व श्रमणवृन्दों के प्रति आस्था, श्रद्धा एवं हृदय के उद्गारों को व्यक्त किया गया है। श्रमण परम्परा में साधु-साध्वीजी भगवन्तों के विहार की परम्परा अनवरत चलती आ रही है। वर्ष दरम्यान सिर्फ चातुर्मासकाल में ही श्रमणवृन्द एक स्थान पर निवास करते हैं। चातुर्मास की अवधि पूर्ण होते ही वे अपने शिष्य-प्रशिष्यों के साथ देशाटनार्थ पैदल निकल पडते हैं जिसे 'विहार' कहा जाता है।
जैन श्रावक-श्राविकाओं द्वारा श्रमणवृन्दों के समक्ष अपने नगर अथवा संघ में अधिक से अधिक समय तक विराजने व धर्मदेशनार्थ की जानेवाली प्रार्थना में प्रमुख रूप से श्राविकाओं द्वारा गुरुभगवन्तों की स्तुति हेतु गाई जानेवाली ऐसी पद्यात्मक रचनाओं को 'गहुँली' कहा जाता है। यहाँ गुरु, विहार
और गहुँली इन तीनों शब्दों के मेल से कृति-नाम व विषय-वस्तु का सहज ही बोध हो जाता है। ___ कर्ता परिचय : इस कृति की अन्तिम गाथा में कर्ता ने 'सुभवीर वचनरस चातुरी' पंक्ति द्वारा अपने गुरु के साथ स्वकीय नामोल्लेख किया है। इससे स्पष्ट होता है कि इस कृति की रचना शुभविजयजी के शिष्य वीरविजयजी ने की है।
For Private and Personal Use Only