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१२
मई २०१४
समय यदि कोई पाठ लिखना रह गया हो और वह बहुत ही उपयोगी हो तो कुछ विशेष चिह्नों द्वारा उस स्थान को चिह्नित कर इस मार्जिन - हाँसिया क्षेत्र में लिख दिया जाता था। कई बार किसी कठिन शब्द का अर्थ भी इस क्षेत्र में लिखा हुआ मिलता है।
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हंसपाद, काकपाद या मोर-पगलूँ : यह चिह्न गणित के 'X' 'गुणा' के निशान जैसा होता है, इसके माध्यम से प्रत के मूल जिह्वा क्षेत्र में यदि कुछ शब्द, वर्णादि जोडना हो तो उस स्थान पर 'A' 'V' इस प्रकार का चिह्न बनाकर मार्जिन - हाँसिया वाले क्षेत्र में काकपाद का चिह्न बनाकर उस वर्ण को लिख दिया जाता था। यह वर्ण उसी पंक्ति के सामने लिखा हुआ मिलता है जिसमें ये चिह्न बने हों । अर्थात् इस पंक्ति में जो कुछ छूट गया है या लिखे हुए को मिटाया है या लेखन में पुनरावृत्ति हो गई है तो उसे काकपाद के माध्यम से दर्शाकर प्रत के मार्जिन - हाँसिया क्षेत्र में लिख दिया जाता था । यदि छूटा हुआ पाठ अधिक हो और उसके सामने वाले मार्जिन हाँसिया में नहीं लिखा जा सकता हो तो उस पाठ को प्रत के ऊपर अथवा नीचे वाले हाँसया क्षेत्र में लिखकर उस पंक्ति के अन्त में ओ / पं. लिखकर जिस पंक्ति में उसे जोडना हो उसकी संख्या लिख दी जाती थी ।
इस चिह्न का मुख्य रूप से उपयोग होने का एक और भी कारण प्रतीत होता है, क्योंकि उस समय प्रत लेखन के साधन अत्यन्त सीमित और अल्प थे । अतः कम स्याही, कागज, ताडपत्र, भोजपत्र आदि सामग्री में अधिक से अधिक लिखना हो जाये इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। क्योंकि उस समय एक ग्रन्थ लिखने हेतु आवश्यक सामग्री एकत्र करने में ही काफी समय गुजर जाता था। इसी लिए इन चिह्नों का सहारा लेना हमारे पूर्वाचार्यों ने अत्यन्त आवश्यक समझा होगा ।
मध्यफुल्लिका : यह चिह्न पञ्चभुज, षड्भुज या चतुर्भुज के आकार का होता है जो प्रत के मध्य भाग में बनाया हुआ मिलता है। संभवतः मध्य भाग में मिलने के कारण ही इसका नाम मध्यफुल्लिका पडा होगा। यह मध्यफुल्लिका समय के साथ और भी सुन्दर चित्रों से सुसज्जित होने लगी । यहाँ कुछ प्रतों में प्राप्त मध्यफुल्लिकाओं की प्रतिकृति निम्नवत् है :
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