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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनवरी २०१४ २४ प्राप्त होते हैं, जिनमें आ . हेमचन्द्रसूरिकृत् योगशास्त्र, आ. उमास्वातिकृत् प्रशमरति, आ. सिद्धसेन दिवाकरकृत् द्वात्रिंशत- द्वात्रिंशिका, आ. हरिभद्रसूरिकृत् योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, षोडशक आदि अनेकों ग्रन्थ उपलब्ध हैं। - महर्षि पतञ्जलिकृत् योगदर्शन- समाधि, साधना, विभूति और कैवल्य इन चार पादों में विभक्त है। यह दर्शन वास्तव में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों को ही स्वीकार करता है । अन्तर सिर्फ इतना है कि यह ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है, जबकि सांख्य नहीं । इस कारण कुछ विद्वानों ने इसे 'सेश्वरसांख्य' की संज्ञा प्रदान की है । 'श्रीमद्भगवद्गीता' में सांख्य एवं योग, इन दोनों दर्शनों को एक ही बताया गया है। योगदर्शन अपने व्यावहारिक पक्ष की प्रबलता के कारण सांख्य की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हुआ । आत्मा और जगत् के समबन्ध में सांख्य के पच्चीस तत्त्वों को ही मान्यता प्रदान करने के बाद यह उसमें ईश्वर का विचार जोड़ देता है । इस कल्पना का मुख्य उद्देश्य ईश्वर को भक्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी मानना है । क्योंकि यहाँ ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय माना गया है। चित्तवृत्तियों के निरोध हेतु ईश्वर की परिकल्पना अत्यन्त सहयक है। महर्षि पतञ्जलि ने ईश्वर को एक विशेष प्रकार का पुरुष मानते हुए उसे दुःख - कर्म विपाकादि से अछूता माना है।' वह सर्वज्ञ, पूर्ण, अनन्त, असीमित शक्तिसम्पन्न, नित्य, अनादि और सर्वव्यापी है। सत्व, रज और तमस् इन तीनों गुणों से अछूता है। यहाँ तक कि इसे मुक्तात्मा से भी भिन्न माना गया है, क्योंकि वह (मुक्तात्मा) बन्धन में रहने के बाद मुक्त होता है, किन्तु यह (ईश्वर) तो नित्य मुक्त है । For Private and Personal Use Only पुरुष चेतन है, प्रकाशस्वरूप है तथा प्रकृति सत्त्व, रजस्, तमोगुणादि की साम्यावस्था का नाम है, जो जड़ है। पुरुष का प्रकाश जब प्रकृति पर पड़ता है तो सृष्टि की उत्पत्ति होती है। यह पुरुष ही यहाँ आत्मस्वरूप है तथा प्रत्येक शरीर में अलग-अलग विद्यमान है। इस दर्शन की ईश्वर विषयक धारणा की एक विशेषता यह है कि यहाँ ईस्वर को सृष्टि का निर्माता, पालक अथवा संहारकता नहीं माना है । क्योंकि सृष्टि का निर्माण तो सांख्य सिद्धान्तानुसार प्रकृति से ही १. पुरुष प्रकृति, महत् (बुद्धि), अहंकार, मन, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ - श्रौत्र, त्वक, चक्षु, रसना, घ्राण, पञ्चकर्मेनद्रियाँ - वाक् पाणि, पाद, पायु, उपस्थ, पञ्चतन्मात्राएँ शब्द, रूप, रस, गन्ध, पञ्चमहाभूत-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वि | २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । - योगसूत्र १/२ ३. योगसूत्र- ९/२८
SR No.525286
Book TitleShrutsagar Ank 2014 01 036
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2014
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
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