SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि.सं.२०६८-ज्येष्ठ होकर कहा : 'पापिष्ठा तू भयंकर पापकर्म करती है. आजसे सातवें दिन अतिसार रोगसे तेरी मृत्यु होगी, और तुझे नरकवास मिलेगा. परिभ्रमण करते हुए प्रभु महावीर भी वहाँ आ पहुँचे. उन्हें अपने ज्ञानबल से महाशतक का सब हाल ज्ञात हो गया. उन्होंने गौतम से कहा कि देखो, महाशतक ने क्रोध से पाप वचनों का उच्चारण किया है. श्रावक को ऐसा नहीं करना चाहिए. तुम जाकर उसे उसकी भूल समझाओ और उचित प्रायश्चित कराओ. गौतमस्वामी ने महाशतक को उनकी भूल का बोध कराया. उन्होंने उसे स्वीकार करके योग्य प्रायश्चित किया. प्रायश्चित से चाहे कैसा भी पाप क्यों न हो, वह भस्म हो जाता है. महाशतक भी प्रायश्चित करके पवित्र हो गए. और अंत में उन्होंने शुभ विचार करते हुए इस देह को छोड़ दिया. ९. नंदिनीप्रिय और १०. शालिनी पिता/तेतली पिता- इन दोनों पुरुषों का जन्म वाराणसी में हुआ था. दोनों अपने अपने उद्योग से धनवान बने थे. दोनो के पास करोड़ स्वर्णमुद्राएँ और गोकुल थे. आवश्यकतानुसार हल, गाड़ियाँ और अन्य वाहन भी थे. नंदिनीप्रिय की स्त्री अश्विनी अत्यन्त बुद्धिमती और गुणवती थी, शालिनीपिता की स्त्री फाल्गुनी भी अत्यन्त पतिपरायणा थी. वह पुण्यकर्मों में कभी आलस्य नहीं करती थी. क्रोध ने तो उसे छुआ भी नहीं था. इसलिए शालिनी पिता ने उसका नाम क्षमादेवी रख दिया था. इन दोनों महापुरुषों ने प्रभु महावीर के उपदेश से आनंद श्रावक के समान संयमी जीवन बिताने का निश्चय किया था. वे ऐश-आराम के अनेक साधन होने पर भी संयम की आराधना करते थे. उनकी पत्नियों ने भी उसी प्रकार के व्रत ग्रहण किये थे. वर्षों तक व्रतों का पालन करने के बाद उन्होंने अत्यन्त उन्नत धार्मिक जीवन बिताना शुरु किया और अन्त तक उसे निभाया. अन्त में अनशन करके शुभ विचार करते हुए देह त्याग किया. आर्षवाणी - आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी ० संसार में देखना हो तो तीर्थकर परमात्मा को देखो, दूसरा देखने जैसा है ही क्या. ० शरीर और कर्म अपना कार्य करते हैं तो आत्मा को अपना कर्तव्य करना चाहिए. एक दिन जिसकी मिटटी ___ होनेवाली है उस देह की किसलिए चिन्ता करे. ० जगत की भाषा में नहीं परन्तु जगत्पति की भाषा में बोलो. हाँ कभी जनसमुदाय की भाषा में तुच्छकार हो तो ___ वह क्षम्य है, किन्तु साधु की वाणी में कभी तुच्छकार नहीं होता. ० कोई व्यक्ति भूल या अपराध कर सकता है, परन्तु हमें तो उसके सद्गुण ही देखना, ग्रहण करना चाहिए, दुर्गुण नहीं. ० इस भव में जीभ का दुरूपयोग करेंगे तो जीभ, कान का दुरूपयोग करेंगे तो कान, यानि जिसका दुरुपयोग करेंगे वह परभव में नहीं मिलेगा. इस प्रकार परभव में ये चीजें दुर्लभ हो जाएँगी. ० यदि आपको गुण की आराधना करनी है, तो तीर्थंकर परमात्मा की करो, प्रभु की भक्ति करो, हम साधुओं की नहीं. साधु के लिए प्रशंसा ज़हर के समान है. ० ज्ञाता-द्रष्टा भाव जैसे-जैसे प्रकट करेंगे, वैसे-वैसे समभाव आएगा. राग द्वेष जीतने का उपाय, साक्षीभाव से रहना ही है. ० गुरू की सेवा जितनी हो सके, उतनी कम है. उनके आशीर्वाद और सेवा से ही विद्या फलवती होती है. ० सहन करना, क्षमा करना और सेवा करना: यही है जीवन मन्त्र. ० आत्मश्रेय के लिए हमेशा जागृत रहो. For Private and Personal Use Only
SR No.525267
Book TitleShrutsagar Ank 2012 06 017
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMukeshbhai N Shah and Others
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2012
Total Pages20
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy