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वि.सं.२०६८-ज्येष्ठ
भगवान महावीर के भक्त १० श्रावक
संकलन: रामप्रकाश झा शासननायक श्री महावीरस्वामी के श्रावक समुदाय में आणंद, कामदेव, चुलणीपिता, सुरादेव, चुल्लगशतक, कुंडसोलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नंदिनीप्रिय एवं तेतलीपिता इन दस श्रावकों को मुख्य गिना गया है. श्रमण भगवान महावीरस्वामी ने स्वयं इनकी धर्मभावना और अटूट श्रद्धाभक्ति की खूब अनुमोदना की है.
इन श्रावकों ने अपनी मेहनत से संपत्ति बढ़ाई थी तथा खेती, व्यवसाय, उद्योग आदि कार्य करते हए अपना जीवन यापन करते थे. समय आने पर इन श्रावकों ने धन-दौलत का मोह छोड़ दिया और आत्मकल्याण में लग गए. अनेक संकट उपस्थित होने पर भी वे धर्ममार्ग से विचलित नहीं हुए और यत्किंचित् विचलित हुए भी तो उन्होंने प्रायश्चित करके अपने पाप को भस्म कर दिया. वैभवशाली होते हुए भी कमल की भाँति उससे यथाशक्य निर्लिप्त होकर धर्मानुरागी बनकर यथाशक्ति संयमी जीवन व्यतीत करते हुए अंत काल तक पवित्र जीवन निर्वाह किया. शास्त्रों में आत्मोत्थान के लिये प्रशस्त दो मार्ग बतलाया गया है. १ श्रमणमार्ग व २ श्रावकमार्ग, जो श्रमणमार्ग पर नहीं चल सकते उन्हें इन श्रावकों की तरह पवित्र जीवन निर्वाह करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए. विभु वीर के ये दस श्रावक इतिहास में अपना अमिट छाप छोड़ गये एवं श्रावकों के लिये आदर्शपात्र बने. हमें भी इन दस श्रावकों के जीवन से अवश्य कुछ सीख लेनी चाहिये इस हेतु इस लेख का अवलोकन एक बार जरूर करना चाहिये.
१. श्री आनंद - आनंद वैशाली नगर के निकट वाणिज्यग्राम के निवासी थे. वाणिज्य व कृषिकार्य करते थे. उनके संचित कोष में करोड़ो स्वर्णमुद्राएँ थीं. हजारों गायों के गोकुल थे. अपने मानवीय गुणों के कारण वह अपनी प्रजा के लिए एक आदर्शपरुष थे. उनकी धर्मपत्नी शिवानन्दा उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखती थी. भगवान महावीर में अत्यधिक श्रद्धा-भक्ति होने के कारण वे राजमहल से पैदल चलकर भगवान के समवसरण में पहुँचे तथा भगवान की देशना सुनकर श्रावक के करने योग्य पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह व्रत धारण किया. स्वयं धर्म करते हुए दूसरों को भी धर्म के प्रति प्रेरित करना उनका परम कर्त्तव्य था.
जीवन के अन्तिम समय में परिवारजनों से आज्ञा लेकर कोल्लाग-सन्निवेश में स्थित पौषधशाला में रहने लगे. वहाँ सूत्र, कल्प, मार्ग तथा तत्त्व के अनुसार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की साधना करने लगे. इस साधना के कारण उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया. अन्त में उन्होंने संथारा-संलेखना व्रत धारण किया. इन्हीं दिनों उन्हें अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई.गणधर गौतम को जब यह पता चला तो उन्हें विश्वास नहीं हआ कि उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हआ है. उन्होंने अपनी जिज्ञासा भगवान महावीर के समक्ष प्रस्तत की. परन्त उनकी ओर से समाधान हो जाने से उन्हें अपनी भूल के प्रति पश्चाताप हुआ. उन्होंने आनन्द से अपने कृत्य के लिए क्षमायाचना की. निरहंकारी आनन्द ने शुद्ध भावों में रमण करते हुए देह त्याग दिया तथा प्रथम देवलोक में महान ऋद्धिवाला देव बने.
२. श्री कामदेव - कामदेव श्रावक चंपा नगरी के निवासी थे. उनकी स्त्री का नाम भद्रा था. वे भी आनंद श्रावक के समान अपने निजी उद्योग से उन्नति प्राप्त किये थे. उनका वैभव आनंद से भी अधिक था.
उन्होंने भी आनंद के समान ही महावीर प्रभु के उपदेश से व्रत ग्रहण किया था और वर्षों तक सच्चे हृदय से उसका पालन किया था. उनकी स्त्री भद्रा ने भी व्रत ग्रहण किया था और वह भी भली भांति उसका पालन करती थी. उन्होंने भी कुछ वर्ष पश्चात् एकान्त जीवन बिताना आरंभ किया था. उस समय उनकी एक कठिन परीक्षा हुई. वे एक दिन रात को ध्यान लगाए खड़े थे कि उनके पास एक देव, पिशाच का रूप धारण करके आया. उसके कान सूप के समान, दाँत दांती के समान, जिह्वा तलवार जैसी, नथुने बड़े चूल्हे के समान, सिर हाथी जैसा बड़ा, आँखें विकराल और शरीर के बाल तलवार के समान थे.
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