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श्रुत सागर, माघ २०५२
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सुभाषित
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीबिए मरणे तहा।
समो निंदापसंसासु, समो माणवमाणओ ।। १९-९१ उत्तराध्ययन सूत्र ] लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निंदा - प्रशंसा एवं मान-अपमान आदि प्रत्येक स्थिति में समभाव से रहता है वही वास्तविक साधु है.
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त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभिर्पक्षैस्त्रिभिर्दिनैः । अत्युग्रपुण्यपापानामिहेव लभ्यते फलम् ।।
अत्यन्त उग्र पुण्य अथवा पाप किया जाय तो इसी भव में उसका अच्छा या बुरा फल तीन वर्षों में, तीन महींनों में, तीन पक्षों ( पखवारों) में अथवा तीन दिनों में प्राप्त हो जाता है.
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सोचते-सोचते....
वसन्त आया. पेड़ों में नवीन कोपलें फूटने लगी. चारों ओर खुशनुमा हवा चलने लगी बुलबुलने सोचा घोंसला बनाया जाए यहाँ बनाया जाय या वहाँ बनाया जाय यह सोचते सोचते बहार खत्म हुई और पतझड आ गया. O
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नेपाल की ओर राष्ट्रसंत
वाले हैं. माघ शुदि में वहाँ अंजनशलाका-प्रतिष्ठादि होने वाले हैं. यहाँ से ये पायापुरी पधारेंगे. उनके स्वागत की तैयारी जोर शोर से हो रही है. वहाँ से कुंडलपुर (नालंदा) श्री गौतम स्वामिजी की जन्मभूमि में नूतन जिनालय की प्रतिष्ठा हेतु आचार्य श्री पधारेंगे, तत्पश्चात् राजगीरजी यात्रार्थ जाने वाले हैं. वहाँ पर भी उनके भव्य स्वागत की तैयारी हो रही है. वहाँ से पटना होकर नेपाल की भूमि में सर्व प्रथम जैनाचार्य का आगमन होने वाला है. काठमांडू (नेपाल) पूज्यश्री के स्वागत एवं जिनमंदिर की सुंदर भव्य प्रतिष्ठा हेतु तैयारी में लगा हुआ है. आचार्यश्री दो महिने नेपाल में स्थिरता करने वाले हैं.
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ग्रंथावलोकन
बोलता है जब कि मूर्ख पहले बोलता है और फिर सोचता है. इस कथन की पुष्टि में आपने महानिशीथ सूत्र में वर्णित रज्जा साध्वी का वृत्तान्त उद्धृत किया है. जिसके विचार रहित वाणी से रज्जा के जीव को असंख्य योनियों में भटकने को विवश कर दिया था. अन्तिम दशम प्रवचन में जीवन व्यवहार का स्वरूप कैसा होना चाहिये बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है. जीवन में परमात्मा की प्राप्ति हो इसके लिए दैनिक व्यवहार को नियमित करने की अत्यंत आवश्यकता है. नीतिनियमों को स्वीकार करने से जीवन नियमित होता है और कोई भी व्यक्ति अधर्म या अनीति के पाप के दलदल में फँसने से बच सकता है.
पू. आचार्यश्री जैन संस्कृति और साहित्य के दिग्गज रक्षक तथा कला सहित भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के मर्मज्ञ है. आपके इन प्रवचनों में अभिव्यक्त वाणी एवं भावना समस्त जीव मात्र के कल्याण के लिए उपयोगी है. इस ग्रंथ का पाठक किसी भी धर्म का अवलम्वन करता हो, निस्संदेह प. पू. गुरु भगवंत की वाणी का रसास्वाद कर अभिभूत हो जाएगा और उसे इस दिशा में और चिंतन करने के लिए प्रेरणा मिलेगी. ग्रंथनाम : जीवन दृष्टि, प्रवचनकार आचार्यश्री पद्मसागर सूरि, प्रथम संस्करण प्रेरक : पू. मुनिश्री देवेन्द्रसागरजी, संपादकः सुशील भंडारी एवं शांति प्रकाश सत्यदास वि. २०४२, मूल्य : २५/- (रू. पच्चीस मात्र), संस्करण : द्वितीय, वर्ष १९९६, वि. २०५२ प्रकाशक : अरूणोदय फाउण्डेशन, कोवा, गांधीनगर ३८२००९
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जैन साहित्य १
परमात्मा महावीर देव ने तीर्थ स्थापना के २५०० वर्ष हो जाने के बाद भी जैन धर्म आज उतना ही गौरव प्राप्त किये हुए है. जैन अनुयायी धन समृद्धि वैभव से आम तौर पर सम्पन्न हैं फिर भी उनके अन्दर धार्मिकता की कोई कमी नहीं होती. उनके अन्दर वे दूषण अभी तक प्रवेश नहीं कर पायें है जो अन्य धन-वैभव से सम्पन्न लोगों में आ जाते हैं. जैन धर्म की जड़ें इतनी मजबूत है कि आज भी वह अपने प्राचीन रूप में गौरवमयी परम्परा की रक्षा करते हुए विद्यमान है. जैन साधु-साध्वी हो या श्रावक सभी वर्ग अपने एक मात्र लक्ष्य मोक्षमार्ग की उपासना में प्रवृत्त दिखते हैं.' . धनाढ्य श्रेष्ठी भी अधर्म से उतना ही डरता है जितना कोई सामान्य व्यक्ति. जैन धर्म केवल वर्तमान काल या इस 'भव' की ही बात नहीं करता बल्कि आने वाले भवों (जन्मों) में भी प्रत्येक जीव को जो अपने किये कर्मों का फल भोगता है, उसकी भी बात करता है. उसे इस दिशा में प्रवृत्त करता है कि वह अपने कर्मों को सुधार, कर्म सुधरेगा तो जीव का यह जन्म सुधरेगा, यह जन्म सफल हुआ तो निस्संदेह धीरे-धीरे जीव को मुक्ति मिल जाएगी. यह भावना कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, हमें यह जन्म क्यों मिला हैं, हमारे पास जो कुछ भी आज है, वह क्यों है और क्या मेरा फिर जन्म हुआ तो यही और ऐसा ही मिलेगा ? इन प्रश्नों एवं वस्तुस्थिति का चिंतन जैन धर्म वड़ी ही सहजता से करता है जो अन्यत्र स्पष्ट एवं सरल नहीं है. २४ तीर्थकरों सहित भगवान श्री महावीर की वाणी आज भी लोगों को उतनी ही शांति एवं प्रेरणा दे रही है. इसका कारण क्या आप जानते हैं ? इसका कारण मात्र जैन श्रुत परम्परा की वाहक जैन श्रमण परम्परा एवं आगम साहित्य सहित विशाल जैन साहित्य है. इसकी इतनी बड़ी मात्रा में लोकप्रियता का कारण भी जैन साहित्य की भाषा थी, जो अधिकांशतः तत्कालीन लोक प्रचलित प्राकृत भाषा थी. जैन धार्मिक साहित्य सामान्यतः उस जमाने में इस प्रकार लिखे गए थे कि वे आम आदमी की सोच-समझ
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अनुकूल हो. भाषा की सरलता के कारण जैन धर्म का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार एवं विकास हुआ है. लोक भाषा प्राकृत की रचनाओं पर वाद में संस्कृत में टीका, वृत्ति, टिप्पणी आदि लिखी गईं, जो विद्वद्भोग्य बनी. कालान्तर में प्राकृत लोकभाषा न रह सकी लेकिन यह भाषा श्रमण भगवंतों द्वारा फिर भी जीवित रही.
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लगभग दसवीं शताब्दी के बाद से आधुनिक काल तक जहाँ एक ओर मूल आगम साहित्य पर अनेक अध्ययन लिखे गये लिखे गए, वहीं दूसरी ओर न्याय, व्याकरण, तत्वदर्शन, जिन चरित्र ग्रंथ, पद्यात्मक पुराण ग्रंथ, ललित साहित्य, दार्शनिक साहित्य, अनुष्ठानात्मक साहित्य, महाकाव्य, ऐतिहासिक काव्य, खण्डकाव्य, प्रवन्ध, एवं रूपक ग्रंथों की रचना हुई. इन रचनाओं के प्रकार खास तौर पर गद्य, पद्य, चंपू आदि रहें. इनकी रचना प्रायः अपभ्रंश, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मारुगुर्जर, प्राचीन हिन्दी,, कन्नड़, तमिल, मराठी के साथ ही आधुनिक भारतीय भाषाओं में हुई है.
श्रमण
जैन साहित्य अथाह सागर जैसा है. इसके संरक्षण, पोषण एवं प्रवर्धन का श्रेय विशेष रूप से जैन धर्म की सुदृढ़ श्रुत परम्परा एवं श्रमण समुदाय को जाता है. 5 भगवंतों ने इन ग्रंथों की रचना अपने को ग्रंथकार कहलाने के लिए नहीं वल्कि अपने शिष्य परिवार की आत्मोन्नति में सहायक सिद्ध हो सके, उन्हें बोध करा सकें, इस हेतु से की थी. इस साहित्य में जैनधर्म एवं संस्कृति के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं. दुर्भाग्य से कालान्तर में अनेक शास्त्रीय ग्रंथ एवं साहित्य लुप्त हो गए हैं, अतएव इस अनमोल खजाने का अध्ययन, मनन एवं संरक्षण आवश्यक हो गया है. वर्त्तमान समय में इसे हम प्राचीन काल की अपेक्षा निश्चित तौर पर ज्यादा अच्छी तरह से सुरक्षित एवं संरक्षित कर सकते हैं. विज्ञान का उपयोग इन शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन, संरक्षण में किया जाए तो जैन धर्म एवं संस्कृति का और संवर्धन हो सकता है. साहित्य जैन धर्म की नाड़ी एवं धमनी का कार्य कर रहा है. कहीं इसकी गति मन्द शेष पृष्ठ ७ पर]
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