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मुनि परम्परा का विकास ऋग्वेद से लेकर महावीर तकः 43 अर्थात् -वह प्रजापति पुष्कर पर्ण में एकाकी उत्पन्न हुआ। उसके अन्तर्मन में इच्छा उत्पन्न हुई इसका मैं सृजन करूं। उसने तप किया। तप करने के पश्चात् शरीर को धुना। उसका जो मांस था उससे अरुणकेतव वातरशनों की उत्पत्ति हुई। जो नख थे वे वैखानस हैं। जो बाल थे वे बालखिल्य हैं। तीसरा उल्लेख कूष्माण्ड ब्राह्मण के अन्तर्गत कूष्माण्डहोम से सम्बद्ध है
वातरशना हवा ऋषयश्श्रमणा उर्ध्व मंथिनः बभूवः।
तानृपयार्थमायंस्ते निलायमचरंस्ते नुप्रविविशुः कूष्माण्डानि।" अर्थात्- 'वातरशन ऋषि निश्चय ही श्रमण उर्ध्वमंथी (उर्ध्वरेता) हुए। जब अन्य ऋषि आए तो वे छिपकर विचरण करते हुए कूष्माण्ड में प्रविष्ट हो गए।' इस विवरण से ज्ञात होता है कि वातरशन आरण्यक तपस्वी थे और सम्भवतः (विष्णु-सम्प्रदायी) वैखानसों से सम्बद्ध थे। वे अग्नि चर्या करते थे और कूष्माण्ड होम उनकी अपनी विशेषता थी। अभिधान सादृश्य के अतिरिक्त केशीसूक्त के वातरशन और तैत्तिरीय आरण्यक के वातरशनों में कोई समानता दिखायी नहीं पड़ती। न तो आरण्यकीय के वातरशन रुद्र से सम्बद्ध है, न मौनेय से उन्मदित और न ही वे पिशंग मल धारण करते हैं। दूसरी
ओर ऋग्वैिदिक वातरशन न तो अग्नि चर्या से सम्बद्ध है और न कूष्माण्ड होम से। अतः केशी सूक्त और तैत्तिरीय आरण्यक के आधार पर वातरशना परम्परा की निरन्तरता का इतिहास संरचित नहीं हो पाता। इसी प्रसंग में शैव, वैष्णव और जैनमतों की विविध परम्पराओं में समादृत ऋषभदेव के विषय में भागवत का निम्न विवरण दर्शनीय है। “धर्मान्दर्शयितु कामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनुवावतार ८ अर्थात् -'वातरशन श्रमण उर्ध्वमंथी ऋषियों के धर्मों के आचरणों को दिखाने के लिए ऋषभदेव ने सात्विक वृत्ति से शरीर धारण किया'। भागवत पुराण (५.७.२०) में स्पष्टत: कहा गया है कि नमि के पुत्र ऋषभदेव वातरशना मुनियों में से एक थे। तैत्तिरीय आरण्यक की रचना के एक हजार वर्ष बाद लिपिबद्ध भागवत में वातरशन उर्ध्वमंथी श्रमण ऋषि का यह उल्लेख निश्चय ही विस्मयकारी है। इस दीर्घ अन्तराल में आरण्यक की यह समन्वित पदावली अन्यत्र नहीं दिखायी देती। ऋषभदेव के चरित्र की त्रिपथगा शैव, वैष्णव और जैन पुराणों में मिलती है और उसमें पर्याप्त भिन्नता है। शैव पुराणों में ऋषभदेव के चरित्र पर पाशुपत योग का स्पष्ट प्रभाव दिखायी पड़ता है। वैष्णव पुराणों में विष्णु के विभवावतार रूप में ऋषभदेव पर भागवतीय प्रभाव दिखायी देता है, जबकि इन दोनों से यथेष्ट रूप में भिन्न जैन आदि पुराण में ऋषभदेव का चरित व्याख्यात है। यहां स्पष्टत: वैखानस आदि भागवतीय सम्प्रदाय के ढांचे में जैन आख्यान को प्रस्तुत करने का प्रयास दिखायी देता है।