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जैन परम्परा के परिप्रेक्ष्य में विवाह पद्धति एवं वर्ण व्यवस्था : 21 विवाह से मैथुन क्रिया का निकट का सम्बन्ध है और मैथुन क्रिया में हिंसा होती है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत्।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥११ अर्थात् जिस प्रकार तिलों से युक्त नाली में तपी हुई लौहशलाका डालने से तिलों का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मैथुन क्रिया करने पर योनि में रहने वाली जीवराशि का नाश होता है। इसलिये वे आगे लिखते हैं कि
ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहात् ।
नि:शेष शेषयोषिन्निवेषणं तैरपि न कार्यम् ।।१२ अर्थात् जो पुरुष चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अपनी स्त्री मात्र को नहीं छोड़ सकते हैं, उनके द्वारा भी समस्त शेष अन्य स्त्रियों का सेवन नहीं करना चाहिये। पुरुषार्थसिद्धयुपाय की मंगला नामक संस्कृत टीका में मुनिश्री १०८ प्रणम्यसागर जी महाराज ने लिखा है किस्वदारमात्रसन्तोषेऽशेषेच्छासमुद्रशोषणाद् देशव्रती भवतीतरथा व्यभिचारप्रसक्तिः।१३ अर्थात् अपनी स्त्री को छोड़कर शेष समस्त स्त्रियों में काम की अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। स्वस्त्री में सन्तोष होने पर बाकी समस्त स्त्रियों में इच्छा रूपी समुद्र के शोषण से देशव्रती संज्ञा होती है, अन्यथा व्यभिचार का प्रसंग आयेगा। आचार्य जिनसेन के अनुसार विवाह सन्तानोत्पत्ति के लिये ही किया जाता है, वे लिखते हैं कि
सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो यजेत् ।१४ अर्थात् केवल सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा से ऋतुकाल में ही परस्पर काम-सेवन करें। जहाँ तक वर्ण व्यवस्था का प्रश्न है तो वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों में लिखा है कि कृतयुग में कल्पवृक्षों का अभाव हो गया। अत: भूख से पीड़ित प्रजा अन्तिम कुलकर नाभिराय के पास गई तो उन्होंने प्रजा की पीड़ा सुनकर कुमार आदिनाथ के पास यह कहकर भेज दिया कि कुमार ही इस दुःख से मुक्त करने में