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________________ 38 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 काफी बल दिया है। इन उपायों से काम संवेग को नियंत्रित किया जा सकता है। कामक्षय के लिए परम साधना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य की साधना का सारा विकास काम संवेग के प्रबंधन के लिए हुआ है। काम एक शक्ति है जो व्यक्ति को अर्थोपार्जन तथा भोग भोगने का प्रधान प्रेरक बनती है। पुरुषार्थ चतुष्टय में यह प्रथम पुरुषार्थ है। इसका स्थान हृदय बताया गया है., इसे मन की ज्योति माना है जो कि संकल्प से पैदा होती है। काम पूर्ति पर काम बढ़ता है तथा अपूर्ति में कदम-कदम पर व्यक्ति विषाद प्राप्त करता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में काम का स्थान हृदय बताया गया है, मनोज्योति कहा गया है। हृदय का तात्पर्य केन्द्रीय या नाभिकीय संवेग से भी लिया जाता है- जैसे-जैसे हृदय पूरे शरीर को रक्त संचार करता है वैसे ही काम सारे भौतिक विकास में प्राण संचार करता है। सारी सांसारिक प्रवृत्तियों में काम तत्त्व की प्रेरणा प्राय: पाई जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, पुण्य और पाप ब्रह्मा की अदृष्ट शक्तियाँ बताई गयी हैं। ये अदृष्ट शक्तियाँ हमारी भावनाओं और संवेगोत्पत्ति में निमित्तभूत बनती हैं, अभिप्ररेणा का कार्य करती हैं।२८ संकल्पजा सृष्टि तथा ब्रह्मा से संसारोत्पत्ति की अवधारणा के अनुसार उपर्युक्त संवेगोत्पत्ति की संगति बैठ सकती है। भारतीय साहित्य में काम आदि संवेगों का मुख्य स्थान रूप शरीर के अंगों का भी प्रतिपादन किया गया है। काम हृदय में, क्रोध भृकुटि में तथा लोभ अधोभाग में निवास करता है अर्थात् इन भागों को ज्यादा प्रभावित करते हैं, ऐसा तात्पर्य घटित होता है।२९ काम को जहाँ तक मूल संवेग मानने की बात है वहाँ इसका व्यापक क्षेत्र घटित होता है और इसे कामवृत्ति जो मैथुनाभिलाषा तक सीमित है, के अर्थ में स्त्रीमतोऽभिलाषा रूप कहा गया है। यह संवेग भी मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी बदौलत जनसंख्या घटती बढ़ती है तथा इसकी तीव्रता विश्व समाज में नानाविध समस्याएँ पैदा कर रही है। उपाधि, आधि और व्याधिजनित बीमारियों में भी यह एक प्रमुख घटक बनता है। काम संवेग का संयम भी उसे समझे बिना असंभव है। इसलिए कामतत्त्व के व्यापक और सीमित दोनों स्वरूपों को गंभीरता से जानना आवश्यक है ताकि परिधिगत समस्याओं का स्थायी समाधान किया जा सके। नियंत्रित अवस्था से विश्व मानव की रचनात्मक विकास की दर बढ़ सके, व्यक्ति, परिवार, समाज के स्वास्थ्य को कायम रखा जा सके। वांछित मूल्यों के विकास से अमन-चैन परक जीवन शैली का प्रादुर्भाव हो सके।
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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