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________________ संवेग के मूल रहस्य की जैन दृष्टि : 33 अकरणीय का भेद नहीं रह पाता है। यह तथ्य मोह की दशा को ही पुष्ट कर रहा है। मोहित व्यक्ति के व्यवहार की विचित्रता का वर्णन करते हुए साहित्य दर्पण में अनेक संवेग प्रकारों का उल्लेख किया गया है। मोह की दशा में भय, दुःख, आवेश आदि के व्यवहार में विचित्रता पैदा होती है तथा उस स्थिति में अज्ञान, भ्रम. घात, चक्कर आना आदि आचार, व्यवहार भी घटित होते हैं। मोह तत्त्व के कार्यों के आधार पर प्रमुख दो भेद किये गए हैं - १. दर्शन मोह जो व्यक्ति की दृष्टि को अयथार्थ बनाता है, जिससे वह शरीर आदि अनित्य को नित्यरूप, अनात्मा में आत्मबुद्धि तथा दुःख रूप इन्द्रिय विषयों में सुख की कल्पना करता है। उनके संयोग और वियोग में संवेगग्रस्त होता रहता है । २. चारित्र मोह जिसका सीधा सम्बन्ध संवेग चेतना से है। दर्शन या दृष्टि मोह जहां संवेग चेतना का कारण कहा जा सकता है, वहां चारित्र मोह उसका अभिव्यक्त रूप हो सकता है। चारित्र मोह तीन भूमिकाएं ग्रहण करता है - १. मोह २. राग ३. द्वेष। इनमें मोह बीजरूप तथा रागद्वेष अंकुर रूप में कार्य करते हैं । चारित्र मोह का मूल अर्थ है- आत्मा को राग भाव से कलुषित करना। उसमें अविद्या तो दृष्टि मोह में विद्यमान थी ही साथ में राग भाव के जुड़ने से आत्मा के गुण विकृत हो जाते हैं । द्रव्य आत्मा जो शुद्ध स्वरूप है, वह कषाय आत्मा तथा योग आत्मा में परिणत हो जाती है। इनके न्यूनाधिक के आधार पर चारित्र मोह के दो प्रकार बताये गए हैं - कषाय और नोकषाय । कषाय अर्थात् जो आत्मा के गुणों की हिंसा करने वाले क्रोध आदि परिणाम हैं। कषाय को उकसाने में ईंधन का कार्य करने वाले नोकषाय यानि अल्प कषाय से हास्य आदि पैदा होते हैं। " नाट्यशास्त्र में मोह को एक संचारी भाव माना गया है तथा इसको पुष्ट करने वाले अनेक संवेगों का भी वर्णन किया गया है। उन मनोभावों से चित्त में विक्षेप पैदा होता है। स्थूल परिणाम ही बाह्य संवेगों के सहारे स्थूल मोह में होता है। इस स्थिति में मनुष्य को यथार्थज्ञानं नहीं रहता है। संवेग का मूल क्या ? जैन दृष्टि से शेष सारे संवेगों का मूल मोह को माना गया है। यह बीज की भूमिका निभाता है तथा इसका पहला अंकुर राग है जिसे मूल संवेग कहा जा सकता है। सभी प्रकार के संवेगों का उत्स, स्रोत या मूल मोह को माना जा सकता है। पूरे भारतीय दर्शनों में प्रायः सभी संवेगों का मूल कारण मिथ्या दृष्टिकोण तदनुरूप मिथ्या आचरण रहा है। बौद्ध धर्म में मोह को महाक्लेश भूमि कहा गया है।' महर्षि पतंजलि के
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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